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________________ २१० अनेकान्त भीमट्ठा दे रहे हैं। फिर भी जबतक हम सभी भारत पुत्र अपने कर्तव्यको न समझें और उस ओर प्रयत्नशील न हों तबतक कैसे हमारे देश की उन्नति हो सकेगी ? जैन समाजका कर्तव्य - अतः अब जैनसमाजका कर्तव्य हो जाता हैं कि वह स्वार्थसाधन करने वाली देशभक्ति से बचे, राजनैतिक दल दलसे दूर रहे और सही अर्थों में भारतीय सपूत बने । (१) किसी भी जैनको म्यूनिस्पल कमेटियों, डिस्ट्रिक्टबोर्डों, कोन्सिलों और व्यवस्थापक सभाके लिये स्वतंत्र उम्मीदवार के नाते कभी भी खड़ा नहीं होना चाहिये । स्वतन्त्र खड़े होनेमें साम्प्रदायिक उत्पातकी हर समय सम्भावना है । अतः किसी भी व्यक्तिको यह अधिकार नहीं है कि वह व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं के लिये समूची समाजको खतरे में डाल दे । यदि कोई स्वार्थी ऐसा करनेका दुःसाहस करे भी तो समाजका उसका साथ हर्गिज नहीं देना चाहिये । चुनाव-निर्वाचनकी उम्मीदवारी के लिये उसी व्यक्तिका खड़ा होना चाहिये और उसीका हमें समर्थन करना चाहिये जिसको उसके त्याग, बलिदान या योग्यता के बलपर देशके अधिकारी वर्गने खड़ा किया हो । जिस कार्यमें देशकी भलाई हो, बहुसंख्यक जनता जिस वर्गके कार्यको सराहे, उसे विश्वस्त समझे हमें उसी वर्गकी लोक-हितैषी योजनाओंमें भाग लेना चाहिये। व्यर्थके राजनैतिक दलदल में नहीं फँसना चाहिये । यह वह दलदल है कि एक बार भी भूल से फँस जानेपर फिर कभी उद्धार नहीं । अतः हमारी समाजका कर्तव्य है कि अब वह अपनी संस्कृति और धार्मिक आचार-विचारका बड़ी योग्यता प्रसार करे । और यह प्रसार तभी हो सकता है जब हम जैनधर्मके मूल सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारें । (२) हमारे देशमें अब माँस-मदिराका प्रसार उत्तरोत्तर बड़े वेग से बढ़ता जारहा है। दिन-पर-दिन इस तरहके रेस्टोरेण्ट और होटल बड़ी संख्या से खुलते Jain Education International [ बर्ष ९ जारहे हैं। दिल्लीके जिस चाँदनीचौक में मुसलमानी सल्तनतमें भी कभी माँस नहीं बिका, वहाँ अब हर १० गज की दूरी पर कबाब और गोश्त -रोटी बिकने लगे हैं। अण्डों का प्रचार होता जारहा है। हमारी नई दिल्ली भी इस दूषित खान-पानसे प्रभावित हो रही है । क्लबोंमें सभ्य सोसायटीके नामपर शराब और जू जरूरी होगया है । सिनेमाओंके हुस्नोइश्कके नामोंसे अश्लीलता निर्लज्जताका जो पाठ हमारे बालक-बालिकाएँ जवानीकी चौखटपर पाँव रखनेसे पहले पढ़ लेते हैं, उससे हमारी नस्लों में घुन लगने लगा है । अब समय आगया है कि श्वेताम्बर जैन साधु श्राश्रमोंसे निकल आएँ । गलीगली, कूँचे- कूँचे में सभाएँ करके माँस-मदिराका श्रम जनतासे त्याग करायें । मद्य-माँस-निषेधिनी सभा स्थापित करके - सिनेमा और समाचारपत्रोंके विज्ञापनों द्वारा, पोस्टरों द्वारा, छोटे-छोटे ट्रेक्टों और व्याख्यानों द्वारा इस बढ़ती प्रथाको रोकें । हमारे जिन पूर्वजोंने यज्ञ- याज्ञादि और उच्च वर्णों में हिंसा सर्वथा त्याज्य करादी थी, निम्न श्रेणी के भी बहुत कम उसका प्रयोग करते थे। आज उनके हम वंशज उनके किये हुए अनथक कार्यपर पानी फिरते देख रहे हैं और हाथपर हाथ बाँधे चुपचाप बैठे हैं । कहीं-कहीं वेश्यानृत्य भी चालू होगये हैं। हमें चाहिए तो यह था कि हम पूर्वजों के कार्यको आगे बढ़ाते । इनका समूचे भारतमें विरोध करके हम यूरुप और इस्लामी देशों में पहुँचते और कहाँ हम अपनी आँखोंके समक्ष इस धर्मघाती भावनाको उत्तरोत्तर बढ़ती हुई देख रहे हैं । भारतीय पूर्ण शक्तिशाली और बलवान हों, अहिंसक हों, उनके हृदयमें दूसरोंके प्रति दया-ममता हो । वह महावीर की तरह पशु-पक्षियोंके पीड़ित होनेपर दयार्द्र हो उठे, पतित-से-पतितको भी ईसाकी तरह उवार सकें । (३) हमारी वाणी में जादू हो, हमारी वाणी से जो भी वाक्य निकले उसका कुछ क़ीमती अर्थ हो । लोग हमारी बातको निरर्थक न समझकर मूल्यवान समझें । जनताको यह विश्वास हो कि प्रत्येक जैन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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