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________________ किरण ५] कथित स्वोपज्ञ भाष्य २११ अपनी बातका धनी होता है । जो वायदा करता है सम्बन्धमें भी हमें अपने पूर्वजोंकी त्यागवृत्ति, सन्तोष उसे जानपर खेलकर भी पूरा करता है । सूर्य-चन्द्रकी और परिमाणवृत्ति फिरसे अपनानी होगी। गति बदल सकती है, परन्तु इनकी बात नहीं बदल जब हम इस तरहके आत्म-शुद्धिके कार्य अपने सकती । जानसे कीमती वचनको समझते हैं। जीवनमें उतारेंगे तभी हमारा यह लोक और परलोक (४) जैनोंसे कभी धोखेकी सम्भावना नहीं, सुधरेगा। और तभी सच्चे अर्थों में जैनधर्मका प्रसार जो वस्तु देंगे, खरी और पूरी देंगे। इनसे बिन गिने होगा और संसार इसकी ओर आकर्षित होगा। रुपये लेनेपर भी पाईका फर्क नही पड़ेगा। इनका उक्त विचार आज शायद कुछ नवीन और अटटिकट चैक करना, चुङ्गीपर पूछना वर्जित है । जैन पटेसे प्रतीत होते हों, परन्तु हमारे धर्मकी भित्ति ही कह देनेका ही यह अर्थ होना चाहिए कि जैन इन ईंटोंपर खड़ी की गई है । अगर जैनधर्मको राजकीय नियमके विरुद्ध कोई वस्तु नहीं रखते जीवित रखना है तो उसकी इन नींवकी ईंटोंको और न राजकीय या प्रजाहितके साधनोंका दुरुपयोग हरगिज़ हरगिज़ नहीं हिलने देना होगा। ही करते हैं। यह मिट्टी और पानी भी पूछकर लेते हैं। हम भारतके आदि - निवासी हैं। भारत हमार __(५) हमारा शील-स्वभाव ऐसा हो कि निर्जन है । हमारा हर प्रयत्न, हर श्वास इसके लिये स्थानमें भी किसी अबलाको हमारे प्रति सन्देह न’ उपयोगी हो। हमसे स्वप्नमें भी इसका अहित न हो। हो । वह अपने निकट हमारी उपस्थिति रक्षककी इसके लिये हमें सदैव जागरूक रहना होगा। आज भाँति समझे। जैन भी बलात्कारी या कुशील हो स्वार्थके लिये धन-लोलुप पाकिस्तानी क्षेत्रोंमें अपने सकता है यह उसके मनमें कल्पना ही न पाकर दे। देश-भाइयोंका गला काटकर कपड़ा और अन्न भेज (६) परिग्रहवादको लेकर आज सारा संसार रहे हैं और अनेक षडयन्त्रोंमें लिप्त होरहे हैं । ऐसे त्रस्त है। इस आपा-धापीके कारण ही युद्ध होते हैं, अधम कार्योंसे-मनुष्योंसे हमें दूर रहना होगा । हम जीवनोपयोगी वस्तुओंपर कण्ट्रोल लगाते हैं। मज- अपने अच्छे कार्योसे जैन-समाजकी कीति यदि न बाजीपति संघर्ष चलते हैं। अतः हमें अपने बढा सकें तो हमें पूर्वजोंके किये हए सत्कार्योंपर पानी जीवनमें 'जीयो और जीनेदो'का सिद्धान्त उतारना फेरनेका कोई अधिकार नहीं है। होगा। पैसा इकट्रा करना पाप नहीं, उसके बलपर डालमियानगर ) • शोषण करना-अत्याचार ढाना पाप है । परिग्रहके १४ मई १६४८ ) -गोयलीय कथित स्कोपज्ञ भाष्य (लेखक-बा० ज्योतिप्रसाद जैन एस. ए.) वाचार्य उमास्वामि-कृत तत्त्वार्थाधिगम सूत्र तम दिगम्बर टीका इस समय उपलब्ध है वह प्राचार्य दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों देवनन्दी पूज्यपाद (५वीं शताब्दी ई०) द्वारा रचित में समानरूपसे परम मान्य ग्रन्थ है, और दोनों ही 'सर्वार्थसिद्धि' है । तदुपरान्त, ७वीं शताब्दी ई०में सम्प्रदायोंके उद्भट विद्वानों-द्वारा, प्राचीन कालसे ही, भट्टाकलङ्कदेवने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक', ८वीं शताब्दी जितने बहुसंख्यक टीका-ग्रन्थ इस एक धर्मशास्त्रपर ईमें विद्यानन्दस्वामीने 'श्लोकवार्तिक' तथाउनके रचे गये उतने शायद किसी अन्य जैन, और सम्भवतया पश्चात् अन्य अनेक टीकाएँ दिगबर विद्वानोंने रची हैं। अजैन ग्रन्थपर भी नहीं रचे गये । उसकी सर्वप्रथम श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा इस ग्रन्थकी ठीकाएँ टीका दूसरी शताब्दी ई में आचार्य स्वामिसमन्त- प्रायः ९वीं शताब्दी ई०के पश्चात् रची जानी प्रारम्भ भद्रद्वारा रची गई बताई जाती है, किन्तु वह टीका हुई। किन्तु श्वेताम्बर आम्नायमें इस सूत्र प्रन्थका . वर्तमानमें अनुपलब्ध है । तत्त्वार्थसूत्रकी जो प्राचीन- एक प्राचीन भाष्य भी प्रचलित रहता आया है, जिसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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