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________________ २१२ अनेकान्त . [ वर्ष ९ कि उक्त आम्नायके विद्वानों द्वारा स्वोपज्ञ भाष्य मान्यताओं एवं क्रियाओंका समर्थन करता है, उक्त अर्थात स्वयं ग्रन्थकर्ता उमास्वातिकृत समझा और आम्नायके अनुयायियों द्वारा स्वयं उमास्वातिकी कृति बताया जाता रहा है। कुछ वर्ष हुए, अनेकान्त आदि माना जाता है। श्वेताम्बरोंका उक्त भाष्यको उमा पत्रों में इस विषयको लेकर श्वेताम्बर तथा दिगम्बर स्वामि कृत मानना कहाँ तक सङ्गत है, यह कहना विद्वानोंके बीच पर्याप्त वादविवाद चला था, और तो जरा कठिन है, किन्तु हमें इस बातको खुले हृदयउसका परिणाम प्रायः यही निकला था कि कथित से स्वीकार करनेमें अवश्य ही कोई झिझक नहीं स्वोपज्ञ भाष्य आचार्य उमास्वामीके समयसे बहुत होनी चाहिये कि अपने ही ग्रन्थपर स्वोपज्ञ भाष्य पीछेकी रचना है और वह उनके स्वयंके द्वारा रची लिखनेका श्रेय हम आधुनिक विद्वानोंने भी अनेक जानी सम्भव नहीं है। किन्तु दिगम्बर विद्वानों द्वारा ग्रन्थकारोंको दे डाला है। अस्तु, 'अर्थशास्त्र के स्वयंके प्रस्तुत प्रबल एवं अकाट्य प्रमाणोंसे और युक्तियों के एक श्लोकके सुस्पष्ट अभिधेयाथेके बावजूद 'अर्थशास्त्र बावजूद उदारसे उदार श्वेताम्बर विद्वान भी भाष्य- जिस रूपमें आज उपलब्ध है उसी रूपमें स्वयं की स्वोपज्ञतापर अविश्वास करनेको तैयार नहीं होते। कौटिल्य द्वारा रचा कहा जा रहा है, जबकि वास्तव इसी विषयपर, प्रसगवश, प्राचीन इतिहास- में वह मूलग्रन्थकी विष्णुगुप्त नामक एक विद्वान विशेषज्ञ प्रो. सी. डी. चटर्जी महोदय ने अपने एक द्वारा रचित टीकामात्र है, जिसमें कि भूल अर्थशास्त्रलेखमें' सुन्दर प्रकाश डाला है। उक्त लेखके फुटनोट के पद्योंको अधिांशतः गद्यरूप दे दिया गया है, और नं०४१ में आप कथन करते हैं कि- शेष पद्योंमेंसे कुछकी व्याख्या कर दी गई है तथा कुछ "यह विश्वास करना अत्यन्त कठिन है कि एकको उनके स्वरूपमें ही उद्धृत कर दिया गया है। उमास्वामी को 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' जैसा जैनसिद्धान्त इस प्रकारके उदाहरण एक दो नहीं, अनेक हैं । हम (तत्त्वज्ञान एवं प्राचार) का अपूर्व सार-सङ्कलन, लोगोंने धनञ्जयके 'दशरूपक'पर रचे गये 'अवलोक' जोकि जैनधर्ममें वही स्थान रखता है जैसा कि का कतृत्व धनञ्जयको ही प्रदान किया, और यह बौद्धधर्ममें 'विशुद्धिमग्ग' दिगम्बर श्राम्नाय द्वारा माना कि उस 'अवलोक'को उसने 'धनिक' नामसे अपने अङ्ग एवं अङ्गवाह्य श्रुत-द्वयका स्वरूप तथा रचा, और यह नाम उसने अपने ग्रन्थपर स्वयं ही आकार पूर्णतया सुनिश्चितकर लिये जाने के पूर्व ही टीका रचनेके लिये उपनामके रूपमें धारण किया लिखा जा सका हो । था ! इसी प्रकार इतिहासकार महानाभको अपने "यह कि, उमास्वाति अथवा उमास्वामी एक 'महावश'पर स्वयं ही टीका रचनेका श्रेय दिया गया दिगम्बर आचार्य थे इस बातमें तनिक भी सन्देह है. इस बातकी भी अवहेलना करते हुए कि स्वयं नहीं है, किन्तु साथ ही यह बात भी उतनी ही सत्य ग्रन्थका पाठ इस बातको प्रसिद्ध कर रहा है। है कि उन्होंने अपने ग्रन्थमें दिगम्बरों और श्वे. हमारी इस प्रकारकी अज्ञ-विश्वास-प्रियताके ये ताम्बरोंके बीच विवादास्पद विषयोंका समावेश न कतिपय ज्वलन्त उदाहरण है। और यदि हम (आधुकरनेमें प्रयत्नपूर्वक सावधानी बरती है। तत्त्वाथा- निक विद्वान ) तत्त्वार्थाधिगमके कथित मूलभाष्यका धिगमसूत्रका मूलभाष्य (बिबलियोथेका इडिका कतत्व भी उसके स्वयंके रचयिता, उमास्वामिको ही १९०३-५) जो कि बहुलताके साथ श्वेताम्बर प्रदान करते हैं, दिगम्बर विद्वानोंकी प्रबल पुष्ट १ Dr. B.C. Law Volume, Part I में प्रकाशित आपत्तियोंकी भी अवहेलना करते हुए, तब भी हम २ और अपने लेखमें अन्यत्र अापने कथन किया है कि कोई नई मिसाल पैदा नहीं कर रहे हैं, क्योंकि यह "पूर्ण सम्भावना यही है कि कुन्दकुन्द और उमास्वामी रिवाज तो हमने पहलेसे ही भली प्रकार स्थापित । दोनों सन् ई० पूर्व ७५से सन् ई० ५०के बीच में हए थे।" कर लिया है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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