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वैशाख, संवत् २००५ :: मई, सन् १९४८
संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा
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किरण ५
सञ्चालक व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
साधु-विवेक
सम्पादक-मंडल
असाधु वस्त्र रँगाते मन न रँगाते, कपट-जाल नित रचते हैं; 'हाथ सुमरनी पेट कतरनी', पर-धन-वनिता तकते हैं।
आपा - परकी खबर नहीं, परमार्थिक बातें करते हैं; ऐसे ठगिया साधु जगतकी, गली-गलीमें फिरते हैं।
जुगलकिशोर मुख्तार
प्रधान सम्पादक मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय
डालमियानगर (बिहार)
साधु
राग, द्वेष जिनके नहिं मनमें, प्रायः विपिन विचरते हैं; क्रोध,मान, मायादिक तजकर, पञ्च महाव्रत धरते हैं । ज्ञान - ध्यानमें लीन - चित्त, विषयों में नहीं भटकते हैं: वे हैं साधु, पुनीत, हितैषी, तारक जो खुद तरते हैं।
___-पं० दलीपसिंह काग़ज़ी