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किरण ५]
समवसरणमें शूद्रों का प्रवेश
उपदेश देकर पूजनादिका अधिकारी ठहराया है उस पाते हैं । उनके इस प्रकट प्रवेशकी बातको लेकर ही पापका भागी कौन होगा।" इसके बाद, यह लिख बुद्धिको अपील करते हुए ऐसा कहा गया है कि जब कर कि “अब हम जिस आगमके विरुद्ध आपके नीचसे नीच तिर्यश्च प्राणी भी भगवानके समवसरण कहनेको मिथ्या बतलाते हैं उसका एक प्रमाण लिख में स्थान पाते हैं तब दस्सा लोग तो, जो कि मनुष्य कर भी आपको दिखलाते हैं", जिनसेनाचार्यकृत होनेके कारण तिर्यञ्चोंसे ऊँचा दर्जा रखते हैं, समहरिवंशपुराणका 'पापशीला विकुर्माणाः' नामका वसरणमें जरूर स्थान पाते हैं, फिर उन्हें भगवानके एक श्लोक यह घोषणा करते हुए कि उसमें "भगवान पूजनादिकसे क्यों रोका जाता है ? खेद है कि नेमिनाथके समोशरणमें शूद्रोंके जानेका स्पष्टतया अध्यापकजीने इस सहज-ग्राह्य अपीलको अपनी निषेध किया है" उद्धृत करते हैं और उसे ५९वें बुद्धिके कपाट बन्द करके उस तक पहुँचने नहीं सर्गका १९०वा श्लोक बतलाते हैं। साथ ही पण्डित दिया और दूसरेके शब्दोंको तोड़-मरोड़कर व्यर्थमें गजाधरलालजीका अर्थ देकर लिखते हैं-"हमने चैलेंजका षड्यन्त्र रच डाला !! यह आचार्य वाक्य आपको लिखकर दिखलाया है दूसरे, व्याकरणाचार्यजीको एक मात्र आदि
आप अन्य इतिहासिक ग्रन्थों (आदिपुराण-उत्तरपुराण) पुराण तथा उत्तरपुराणके आधारपर किसी तीर्थकरके के प्रमाणों द्वारा इसके अविरुद्ध सिद्ध करके दिखलावें
समवसरणमें शूद्रोंका उपस्थित होना सिद्ध करनेके और परस्परमें विरोध होनेका भी ध्यान लिये बाध्य करना किसी तरह भी समुचित नहीं कहा अवश्य रक्खें।"
जासकता; क्योंकि उन्होंने न तो शूद्रोंके समवसरण, अध्यापकजीका यह सब लिखना अविचारितरम्य
प्रवेशपर अपने पक्षको अवलम्बित किया है और न एवं घोर आपत्तिके योग्य है, जिसका खुलासा उक्त दोनों प्रन्थोंपर ही अपने पक्षका आधार रक्खा निम्न प्रकार है:
है। जब ये दोनों बातें नहीं तब यह प्रश्न पैदा होता प्रथम तो व्याकरणाचार्यजीके वाक्यपरसे जो है कि क्या अध्यापकजीकी दृष्टिमें उक्त दोनों ग्रन्थ ही अर्थ स्वेच्छापूर्वक फलित किया गया है वह उसपर- प्रमाण हैं, दूसरा कोई जैनग्रन्थ प्रमाण नहीं है? से फलित नहीं होता, क्योंकि "शुद्रोंका समोशरणमें यदि ऐसा है तो फिर उन्होंने स्वयं हरिवंशपुराण और उपस्थित होना" उसमें कहीं नहीं बतलाया गया- धर्मसंग्रहश्रावकाचारके प्रमाण अपने लेखमें क्यों 'शद्र' शब्दका प्रयोग तक भी उसमें नहीं है। उसमें उद्धृत किये ? यदि दूसरे जैनग्रन्थ भी प्रमाण हैं तो साफतौरपर नीचसे नीच व्यक्तियोंके समवसरणमें फिर एक मात्र आदिपुराण और उत्तरपुराणके प्रमाणों स्थान पानेकी बात कही गई है और वे नीचसे नीच को उपस्थित करनेका आग्रह क्यों ? और दूसरे ग्रंथोंव्यक्ति 'शूद्र' ही होते हैं ऐसा कहीं कोई नियम के प्रमाणोंकी अवहेलना क्यों ? यदि समान-मान्यता अथवा विधान नहीं है, जिससे 'नीचसे नीच व्यक्ति' के ग्रन्थ होनेसे उन्हींपर पक्ष-विपक्षके निर्णयकाका वाच्यार्थ 'शूद्र' किया जासके। उसमें 'नीचसे नीच' आधार रखना था तो अपने निषेधपक्षको पुष्ट करनेशब्दोंके साथ 'मानव' शब्दका भी प्रयोग न करके के लिये भी उन्हीं ग्रन्थोंपरसे कोई प्रमाण उपस्थित 'व्यक्ति' शब्दका जो प्रयोग किया गया है वह अपनी करना चाहिए था; परन्तु अपने पक्षका समर्थन करने
खास विशेषता रखता है। नीचसे नीच मानव भी के लिये उनका कोई भी वाक्य उपस्थित नहीं किया .एक मात्र शुद्ध नहीं होते, नीचसे नीच व्यक्तियोंकी तो गया और न किया जा सकता है क्योंकि उनमें कोई बात ही अलग है। 'नीचसे नीच व्यक्ति' शब्दोंका भी वाक्य ऐसा नहीं है जिसके द्वारा शुद्रोंका समप्रयोग उन हीन तिर्यश्चोंको लक्ष्यमें रखकर किया वसरणमें जाना निषिद्ध ठहराया गया हो। और जब गया जान पड़ता है जो समवसरणमें खुला प्रवेश उक्त दोनों ग्रन्थों में शूद्रोंके समवसरणमें जाने-न-जाने
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