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________________ १७२ सम्बन्धी कोई स्पष्ट उल्लेख अथवा विधि-निषेधपरक वाक्य ही नहीं तब ऐसे ग्रन्थोंके आधारपर चैलेंज की बात करना चैलेंज की कोरी विडम्बना नहीं तो और क्या है ? इस तरहके तो पूजनादि अनेक विषयोंके सैंकड़ों चैलेंज अध्यापकजीको तत्त्वार्थसूत्रादि ऐसे ग्रन्थोंको लेकर दिये जा सकते हैं जिनमें उन विषयोंका विधि या निषेध कुछ भी नहीं है । परन्तु ऐसे चैलेंजोंका कोई मूल्य नहीं होता, और इसीसे अध्यापकजीका चैलेंज विद्वद्दष्टिमें उपेक्षणीय ही नहीं किन्तु गर्हनीय भी है । तीसरे, अध्यापकजीका यह लिखना कि "यदि आप इन ऐतिहासिक ग्रन्थों द्वारा शूद्रोंका समोशरणमें जाना सिद्ध नहीं कर सके तो दस्साओं के पूजनाधिकारका कहना आपका सर्वथा व्यर्थ सिद्ध हो जायगा" और भी विडम्बनामात्र है और उनके अनोखे तर्क तथा अद्भुत न्यायको व्यक्त करता है ! क्योंकि शूद्रोंका यदि समवसरणमें जाना सिद्ध न किया जासके तो उन्हींके पूजनाधिकारको व्यर्थ ठहराना था न कि दस्साओं के, जिनके विषयका कोई प्रमाण माँगा ही नहीं गया ! यह तो वह बात हुई कि सबूत किसी विषयका और निर्णय किसी दूसरे ही विषयका ! ऐसी जजीपर किसे वर्स अथवा रहम नहीं आगा और वह किसके कौतुकका विषय नहीं बनेगी !! अनेकान्त यदि यह कहा जाय कि शूद्रोंके पूजनाधि - कारपर ही दस्साओं का पूजनाधिकार अवलम्बित है —वे उनके समानधर्मा हैं - तो फिर शूद्रोंके स्पष्ट पूजनाधिकार-सम्बन्धी कथनों अथवा विधि-विधानों को ही क्यों नहीं लिया जाता ? और क्यों उन्हें छोड़ कर शूद्रोंके समवसरण में जाने न जानेकी बातको व्यर्थ उठाया जाता है ? जैन शास्त्रोंमें शूद्रोंके द्वारा पूजनकी और उस पूजनके उत्तम फलकी कथाएँ ही नहीं मिलतीं बल्कि शुद्रोंको स्पष्ट तौर से नित्यपूजनका अधिकारी घोषित किया गया है। साथ ही जैनगृहस्थों, अविरत - सम्यग्दृष्टियों, पाक्षिक श्रावकों और व्रती श्रावकों सभीको जिनपूजाका अधिकारी बतलाया गया है और शूद्र भी इन सभी कोटियोंमें आते हैं, Jain Education International [ वर्ष ९ इतना ही नहीं बल्कि श्रावकका ऊँचा दर्जा ११वीं प्रतिमा तक धारण कर सकते हैं और ऊँचे दर्जेके नित्यपूजक भी हो सकते हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दों में 'दान और पूजा श्रावकके मुख्य धर्म हैं, इन दोनोंके विना कोई श्राबक होता ही नहीं, ('दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मो ण सावगो तेण विरणा') और शूद्र तथा दस्सा दोनों जैनी तथा श्रावक भी होते हैं तब वे पूजन के अधिकार से कैसे वश्चित किये जासकते हैं ? नहीं किये जा सकते। उन्हें पूजनाधिकार से वचित करनेवाला अथवा उनके पूजनमें अन्तराय (बिघ्न ) डालनेवाला घोर पापका भागी होता है, जिसका कुछ उल्लेख कुन्दकुन्दकी रयणसारगत 'खय कुटु-सूलमूलो' नामकी गाथासे जाना जाता है। इन सब विषयोंके प्रमाणोंका काफी संकलन और विवेचन 'जिनपूजाधिकारमीमांसा' में किया गया है और उनमें आदिपुराण तथा धर्मसंग्रहश्रावकाचार के प्रमाण भी संगृहीत हैं । उन सब प्रमाणों तथा विवेचनों और पूजन- विषयक जैन सिद्धान्तकी तरफ से आँखें बन्द करके इस प्रकारके चैलेंज की योजना करना अध्यापकजी के एकमात्र कौटिल्यका द्योतक है । यदि कोई उनकी इस तर्कपद्धतिको अपनाकर उन्हीं से उलटकर यह कहने लगे कि 'महाराज, आप ही इन आदिपुराण तथा उत्तरपुराणके द्वारा शूद्रोंका समवसरण में जानो निषिद्ध सिद्ध कीजिये, यदि आप ऐसा सिद्ध नहीं कर सकेंगे तो दस्साओंके पूजनाधिकारको निषिद्ध कहना आपका सर्वथा व्यर्थ सिद्ध हो जायगा' तो इससे अध्यापकजीपर कैसी बीतेगी, इसे वे स्वयं समझ सकेंगे । उनका तर्क उन्हीं के गलेका हार हो जायेगा और उन्हें कुछ भी उत्तर देते बन नहीं पड़ेगा; क्योंकि उक्त दोनों ग्रन्थोंके आधारपर प्रकृत विषय के निर्णयकी बातको उन्हींने उठाया है और उनमें उनके अनुकूल कुछ भी नहीं है । चौथे, 'उस पापका भागी कौन होगा' यह जो अप्रासङ्गिक प्रश्न उठाया गया है वह अध्यापकजी की हिमाक़तका द्योतक है । व्याकरणाचार्यजीने तो आगमके विरुद्ध कोई उपदेश नहीं दिया, उन्होंने तो For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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