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________________ किरण ५] सन्मति-विद्या-विनोद २०१ ___ तुम हमेशा सच बोलती थी और अपने अपराध- एक दिन सुबहके वक्त तुम मेरे कमरेके सामनेकी को खुशीसे स्वीकार कर लेती थी। बुद्धि विकासके बगड़ीमें दौड़ लगा रही थी और तुम्हारे शरीरकी साथ-साथ आत्मामें शुद्धिप्रियता, निर्भयता, निस्पृहता, छाया पीछेकी दीवारपर पड़ रही थी। पासमें खड़ी हृदयोचता और स्पष्टवादिता जैसे गुणोंका विकास हुई भाई हींगनलालजीकी बड़ी लड़कियाँ कह रही भी तेजीसे होरहा था। धायके चले जानेके बादसे थीं 'देख, विद्या ! तेरे पीछे भाई आरहा है।' पहले तुम मैले-कुचैले वस्त्र पहने हुए किसी भी स्त्री या तो तुमने उनकी इस बातको अनसुनीसी कर दिया, लड़की आदिकी गोद नहीं चढ़ती थी, जिसका अच्छा जब व बारबार कहती रही तब तुमने एकदम गम्भीर परिचय शामलीके उत्सवपर मिला, जबकि तुम्हें होकर डपटते हुए स्वर में कहा "नहीं, यह तो छाँवला गोदीमें उठाये चलनेके लिये दादीजीने एक लड़कीकी है।" तुम्हारे इस 'छाँवला' शब्दको सुनकर सबको योजना की थी; परन्तु तुमने उसकी गोदी चढ़कर हँसी आगई ! क्योंकि छाया, छाँवली अथवा पडछाई नहीं दिया और कहा कि 'मैं अपने पैरों आप चलूंगी' की जगह 'छाँवला' शब्द पहले कभी सुननेमें नहीं और तुम हिम्मतके साथ बरावर अपने पैरों चलती आया था। आमतौरपर बच्चे बतलाने वालोंके अनुरही जबतक कि तम्हें थकी जानकर किसी स्वच्छ स्त्री रूप अपनी छायाको भाई समझकर अपने पीछे या लड़कीने अपनी गोद नहीं उठाया। मुझे बड़ी भाईका आना कहने लगते हैं, यही बात भाईकी प्रमन्नता होती थी, जब मैं अपने यहाँके दुकानदारोंसे लड़कियाँ तुम्हारे मुखसे कहलाना चाहती थीं, जिससे यह सुनता था कि 'तुम्हारी विद्या इधर आई थी, हम तुम्हारी निर्दोष बोली कुछ फल जाय; परन्तु तुम्हारे उसे कुछ चीज देनेके लिये बुलाते रहे परन्तु वह यह विवेकने उसे स्वीकार नहीं किया और 'छावला' कहती हुई चली गई कि "हमारे घर बहुत चीज है।" शब्दकी नई सृष्टि करके सबको चकित कर दिया। तुम्हारा खुदका यह उत्तर तुम्हारे सन्तोष, स्वाभिमान एक रोज़ मैं अपने साथ तुम्हें लिची, खरबूजा तुम्हारी निस्पृहताका अच्छा परिचायक होता था। आदि कुछ फल खिला रहा था, तय्यार फलोंको स्वाते एकबार बहन गुणमालाने चि. जयवंतीकी पाछा- खाते तुमने एकदम अपना हाथ सिकोड़ लिया और . पाड धोतीमेंसे तुम्हारे लिये एक छोटी धोती सवादो • मेरे इस पूछनेपर कि 'और क्यों नहीं खाती ?' गजके करीब लम्बी तैयार की, जिसके दोनों तरफ तुमने साफ कह दिया कि “मेरे पेटमें तो लिचीकी चौड़ी किनारी थी और जो अच्छी साफ सुथरी धुली. भूख है।" तुम्हारी इस स्पष्टवादितापर पुझे बड़ी हुई थी। वह धोती जब तुम्हें पहनाई जाने लगी तो प्रसन्नता हुई और मैंने लिचीका भरा हुआ बोहिया तुमने उसके पहननेसे इनकार किया और मेरे इस तुम्हारे सामने रखकर कहा कि इसमेंसे जितनी इच्छा कहनेपर कि 'धोती बड़ी साफ सुन्दर है पहन लो' हो उतनी लिची खालो। तुमने फिर दो-चार लिची तुमने उसके म्पर्शमे अपने शरीरको अलग करते हुए और खाकर ही अपनी तृप्ति व्यक्त कर दी। इससे साफ कह दिया “यह तो कत्तर है।" तुम्हारे इस मुझे बड़ा सन्तोष हुआ; क्योंकि मैं सङ्कोचादिके वश उत्तरको सुनकर मब दङ्ग रह गये ! क्योंकि इतने बड़े अनिच्छापूर्वक किसी ऐसी चीजको खाते रहना पड़ेको 'कत्तर' का नाम इससे पहले किसीने नहीं स्वास्थ्यके लिये हितकर नहीं समझता जो रुचिकर सुना था । बहन गुणमाला कहने लगी-भाई जी! न हो। और मेरी हमेशा यह इच्छा रहती थी कि तुम तो विद्याको सादा जीवन व्यतीत कराना चाहते तुम्हारी स्वाभाविक इच्छाओंका विघात न होने पावे हो, इसके कान-नाक बिंधवानेकी भी तुम्हारी इच्छा और अपनी तरफसे कोई ऐसा कार्य न किया जाय नहीं है परन्तु इसके दिमाराको तो देखो जो इतनी जिससे तुम्हारी शक्तियोंके विकासमें किसी प्रकारकी बड़ी धोतीको भी 'कत्तर' बतलाती है!' वाधा उपस्थित हो या तुम्हारे आत्मापर कोई बुरा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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