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असर अथवा संस्कार पड़े ।
जब तुम नानौतासे मेरी तथा दादी आदिके साथ देहली होती हुई पिछली बार मेरी साथ ता० २२ मई सन् १९२०क्को सरसावा आई तब मैंने तुम्हें यों ही विनोदरूपमें अपनी लायब्रेरीकी कुछ अलमारियाँ खोलकर दिखलाई थीं, देखकर तुमने कहा था "तुम्हारी यह अलमारी बड़ी चोखी हैं।" इसपर मैंने जब यह कहा कि बेटी ! ये सब चीजें तुम्हारी हैं, तुम इन सब पुस्तकों को पढ़ना' तब तुमने तुरन्त ही उलट कर यह कह दिया था कि "नहीं, तुम्हारी ही हैं तुम्हीं पढ़ना ।" तुम्हारे इन शब्दोंको सुनकर मेरे हृदयपर एकदम चोटसी लगी थी और मैं क्षणभरके लिये यह सोचने लगा था कि कहीं भावीका विधान ही तो ऐसा नहीं जो इस बच्ची के मुँहसे ऐसे शब्द निकल रहे हैं। और फिर यह खयाल करके ही सन्तोष धारण कर लिया था कि तुमने आदर तथा शिष्टाचार के रूप में ही ऐसे शब्द कहे हैं । इस बातको अभी महीनाभर भी नहीं हुआ था कि नगरमें चेचकका कुछ प्रकोप हुआ, घरपर भाई हींगनलालजीकी लड़कियों को एक-एक करके खसरा निकला तथा कंठी नमूदार हुई और उन सबके अच्छा होनेपर तुम्हें भी उस रोगने आ घेरा - कण्ठी अथवा मोतीझारेका ज्वर हो आया ! इधर दादीजीका पत्र आया कि वे बहून गुणमाला तथा चि० जयवन्तीको पं० चन्दाबाईके पास चारा छोड़कर वापिस नानौता आगई हैं और पत्र में तुम्हें जल्दी ही लेकर आनेकी प्रेरणा की गई थी। मैंने भी सोचा कि इस बीमारीमें तुम्हारी अच्छी सेवा और चिकित्सा दादीजी के पास ही हो सकेगी, और इसलिये मैं १७ जूनको तुम्हें लेकर नानौता आगया । दो-चार दिन बीमारीको कुछ शांति पड़ी और तुम्हारे अच्छा होनेकी आशा बँधी कि फिर एकदम बीमारी लौट गई। उपायान्तर न देखकर २६ जूनको तुम्हें सहारनपुर जैन शकाखाने में लाया गया, जहाँ २७की रातको तुमने दम तोड़ना शुरू किया और २८की सुबह होते होते तुम्हारा प्राण पखेरू एकदम उड़ गया !! किसीकी कुछ भी न
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अनैकान्तं
[ वर्ष ९
चली !!! उसी वक्त तुम्हारे मृत शरीरको अन्तिम संस्कार के लिये शिक्रम में रखकर सरसावा लाया गया - साथमें दादीजी और एक दूसरे सज्जन भी थे। खबर पाते ही जनता जुड़ गई। कुटुम्ब तथा नगरके कितने ही सज्जनोंकी यह राय थी कि तुम्हारा दाहसंस्कार न करके पुरानी प्रथाके अनुसार तुम्हारे मृतदेहको जोहड़के पास गाड़ दिया जाय और उसके आस-पास कुछ पानी फेर दिया जाय; परन्तु मेरे आत्माको यह किसी तरह भी रुचिकर तथा उचित प्रतीत नहीं हुआ, और इसलिये अन्तको तुम्हारा दाह-संस्कार ही किया गया, जो सरसावामें तुम्हारे जैसे छोटी उम्र के बच्चोंका पहला ही दाह-संस्कार था ।
इस तरह लगभग ढाई वर्षकी अवस्थामें ही तुम्हारा वियोग होजानेसे मेरे चित्तको बहुत बड़ा आघात अहुँचा था; क्योंकि मैंने तुम्हारे ऊपर बहुतसी आशाएँ बाँध रक्खी थीं और अनेक विचारोंको कार्य में परिणत करने का तुम्हें एक आधार अथवा साधन समझ रक्खा था । मैं तुम्हें अपने पास ही रखकर एक आदर्श कन्या और स्त्री समाजका उद्धार करने वाली एक आदर्श स्त्रीके रूपमें देखना चाहता था और तुम्हारे गुणों का तेजी से विकास उस सबके अनुकूल जान पड़ता था । परन्तु मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतनी थोड़ी आयु लेकर आई हो । तुम्हारे वियोग में उस समय सुहृद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमी बम्बईने 'विद्यावती वियोग' नामका एक लेख जैन हितैषी (भाग १४ क ९) में प्रकट किया था । और उसमें मेरे तात्कालिक पत्रका कितना ही अंश भी उद्धृत किया था । ऋण चुकाना -
पुत्रियो ! जहाँ तुम मुझे सुख-दुख दे गई हो वहाँ अपना कुछ ऋण भी मेरे ऊपर छोड़ गई हो, जिसको चुकाने का मुझे कुछ भी ध्यान नहीं रहा । गत ३१ दिसम्बर सन् १९४७को उसका एकाएक ध्यान आया है । वह ऋण तुम्हारे कुछ जेवरों तथा भेंट आदि में मिले हुए रुपये-पैसोंके रूपमें हैं जो मेरे पास अमानत थे, जिन्हें तुम मुझे स्वेच्छासे दे नहीं
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