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________________ किरण ५] जैनधर्म बनाम समाजवाद १९३ इस हलाहलकी एकमात्र औषधि संयमवाद है। और उसके विकासका साधन तो माना ही है, पर यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओं, वासनाओं और इसका रहस्य सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाको सुदृढ कषायों पर नियन्त्रण रखकर छीना-झपटीको दूर बनाना है। शासित और शासक या शोषित और कर दे तो समाजमेंसे आर्थिक विषमता अवश्य दर शोषक इन वाँकी बुनियाद भी संयमके पालन-द्वारा होजाय तथा सभी सदस्य शारीरिक आवश्यकताओं दूर होजायगी। क्या आजका समाज स्वार्थ-त्यागकी की पूर्ति निराकुलरूपसे कर सकें। कठिन तपस्या कर वर्गसंघर्षको दूर कर सकेगा। __ संयमके दो भेद हैं-इन्द्रियसंयम और प्राणि सामाजिक दृष्टिकोण । संयम । इन्द्रियोंको वशमें करना इन्द्रियसंयम है । इस ___समस्त प्राणियोंको उन्नतिके अवसरों में समानता संयमका पालने वाला अपने जीवनके निर्वाहके लिये प्रदान करना जैनधर्मका सामाजिक सिद्धान्त है । इस इन्द्रियजय-द्वारा कमसे कम सामग्रीका उपभोग सिद्धान्तका व्यावहारिकरूप अहिंसाकी बुनियादपर करता है, शेष सामग्री अन्य लोगोंके काम आती है, आश्रित है। इसी कारण जैन अहिंसाका क्षेत्र इतना इससे संघर्ष कम होता है और विषमता दूर होती है। अधिक विस्तृत है कि उससे जीवनका कोई भी कोना यदि एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करे तो अछूता नहीं है । परस्पर भाई-भाईकासा व्यवहार दूसरोंके लिये सामग्री कम पड़ेगी तथा शोषणकी करना, एक दूसरेके दुःखदर्दमें सहायक होना, दूसरों शरुपात भी यहींसे हो जायगी। समाजमें पूंजीका को ठीक अपने समान समझना, हीनाधिककी समान वितरण होजानेपर भी जबतक तृष्णा शान्त भावनाका त्याग करना, अन्य लोगोंकी सुखसुविधाओं नहीं होगी, अवसर मिलनेपर मनमाना उपभोग को समझना तथा उनके विपरीत आचरण न करना लोग करते ही रहेंगे तथा वर्ग-संघष चलता रहेगा। अहिंसा है। जैनधर्मकी अहिंसाका ध्येय केवल मानव अतएव आर्थिक वैषम्यको दूर करने के लिये अपनी समाजका ही कल्याण करना नहीं है, किन्तु पशु, इच्छाओं और लालसाओंको प्रत्येक व्यक्तिको पक्षी, कीडे, मकोड़े आदि समस्त प्राणियोंको जानदार नियन्त्रित करना होगा, तभी समाज सुखी और समझकर उन्हें किसी प्रकारका कष्ट न देना, उनकी समृद्धिशाली बन सकेगा। उन्नति और विकासकी चेष्टा करना, सर्वत्र सुख और प्राणिसंयम-अन्य प्राणियोंको किश्चित् भी शान्ति स्थापित करनेके लिये विश्वप्रेमके सुत्रमें आबद्ध दुःख न देना प्राणिसंयम है । अर्थात संसारके होना सम्प्रदाय, जाति या वगगत वैषम्यको दूर समस्त प्राणियोंकी सुख-सुविधाओंका पूरा-पूरा करना है। खयाल रखकर अपनी प्रवृत्ति करना, समाजक प्रति मानवका सामाजिक सम्बन्ध कुछ हद तक पाशअपने कतव्यको अदा करना एव व्यक्तिगत स्वार्थ विक शक्तियों के द्वारा सचालित होता आ रहा है। भावनाको त्याग कर समस्त प्राणियोक कल्याणकी इसका प्रारम्भ कुछ अधिनायकशाही मनोवृत्तिके भावनासे अपने प्रत्येक कार्यको करना प्राणिसंयम है। व्यक्तियों द्वारा हुआ है जो अपनी सत्ता समाजपर इतना निश्चित है कि जबतक समर्थ लोग संयम- लादकर उसका शोषण करते रहते हैं। अहिंसा ही पालन नहीं करेंगे तबतक निर्बलोंको पेट भर भोजन एक ऐसी वस्तु है जो मानवकी मानवताका मूल्याङ्कन नहीं मिल सकेगा और न समाजका रहन-सहन ही कर उपर्युक्त अधिनायकशाहीकी मनोवृत्तिको दूर कर ऊँचा हो सकेगा । जैनाचार्योंने संयमको आत्मशुद्धि सकती है। पाखण्ड और धोखेबाजीकी भावनाएँ ही १ कषत्यात्मानमिति कषायः क्रोधादिपरिणामः, कषति ससारमें अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्राज्यवादकी हिनस्त्यात्मानं कुगतिप्रापणादिति कषायः । नींवको दृढ करती हैं। क्योंकि सत्ता और धोखा -राजवार्तिक पृ० २४८ ये दोनों ही एक दूसरेपर आश्रित हैं तथा इन्हें एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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