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________________ २०६ हमारे अनुकूल बन सकें। यदि हमने जरा-सी भूल की तो उसकी हानि जैन समाजको सैकड़ों वर्षों तक उठानी पड़ेगी। यदि यह कार्य जैनसमाजके तीनों सम्प्रदाय मिलकर करें, तो और भी अच्छा है । प्रबन्धक कमेटी के चुनाव के समय जो आलोचना हुई, उससे हमें काफी सीखना चाहिये। नामालूम हम नुमायशी, निकम्मी कमेटियोंके चक्कर से कब निकलेंगे और ठोस काम करने वाली कमेटियाँ बनाना कब सीखेंगे ? अनेकान्त महामन्त्री पद से श्रीराजेन्द्रकुमारजोने त्यागपत्र दिया। वह स्वीकृत होगया । आपकी सेवाएँ जैनसमाज और परिषद् के लिए महान हैं। परिषद् के स्थापनाकाल से ही आपका परिषद्से सम्बन्ध रहा है । तन-मन-धन से उसका कार्य आप २०, २५ वर्षसे कर रहे हैं । इतने वर्ष कार्य करने पर अवकाश चाहना सर्वथा उचित ही था । आपके स्थानपर श्री - तनसुखरायजी महामंत्री चुने गये। लाला तनसुखराय [ वर्ष ९ जी एक सिपाही ढंगके कार्यकर्ता हैं। आशा है कि वे परिषद् के संगठन कार्यको ठीकरूपसे करेंगे और आपको समाजका पूरा सहयोग मिलेगा । परिषद् सभापति श्रीरतनलालजी हैं। आपकी योग्यता, कार्यकुशलता, त्याग, देशभक्ति आदि की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। समाज आपसे यही चाहती है कि समाजका नेतृत्व ठीक-ठीक करके समाजसे काम लें । गाजियाबाद के एक भाईने नवयुवकों को कई बार इकट्ठा किया, किन्तु उसके परिणामस्वरूप किसी खास बात या कामका ज़िकर नहीं सुना । Jain Education International समस्त बातों को देखते हुए परिषद्का यह अधिवेशन न विशेष उत्साहवर्धक ही था और न निराशापूर्ण । सब आलोचक काम देखते हैं, काम चाहते हैं, किन्तु काम करना कोई नहीं चाहता । और इसी लिए काम नहीं होता । काश, हम सब स्वयं कुछ काम करना सीखें ! बर्नार्डशा के पत्रका एक अंश सुप्रसिद्ध अँग्रेज विद्वान् विचारक जार्ज बर्नार्डशा अपने २१ अप्रैल सन् १९४८के एक पत्र में, जो उन्होंने बाबू अजितप्रसादजी जैन एम० ए०, लखनऊको उनके पत्रके उत्तर में भेजा है, लिखते हैं कि'बहुत वर्ष हुए जब उनसे पूछा गया था कि प्रचलित धर्मों में से कौनसा धर्म ऐसा है जो उनके अपने धार्मिक विश्वास के सर्वाधिक निकट पहुँचता है, उन्होंने उत्तर दिया था कि क्वेकर मित्रमण्डलका पन्थ और जैनधर्म । किन्तु जब वे भारत आये और यहाँ एक जैन मन्दिरको देखा तो उन्होंने इस मन्दिरको अत्यन्त भद्दी घोड़ेके मूंडवाली मूर्तियोंसे भरा पाया । तीर्थङ्कर प्रतिमाएँ अवश्य ही जादू असर, सुन्दर और शान्तिदायक थीं, किन्तु वे भी भोले मूर्तिपूजकों द्वारा सामान्य देवी-देवताओं की भाँति पूजी जा रही थीं । अज्ञ जनसाधारणको प्रभाबित करने के लिये सब ही धर्मोंको उन अनुयायियोंकी योग्यताके अनुसार मूर्तियों एवं अतिशय चमत्कारादि द्वारा निचले स्तरपर लाना पड़ता ही है ।' For Personal & Private Use Only ज्योतिप्रसाद जैन, - लखनऊ, ता० १८-५-१९४८ www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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