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________________ १९० अनेकान्त [वर्ष ९ वासनाओंमें आसक्त प्राणीको भी यह परमात्मा विशेषताओंके कारण अपने उत्थान और पतनमें होनेकी योग्यता वर्तमान है। परमात्मा हो जानेपर पुद्गल (Matter) को निमित्त कारण-सहायक इच्छाओंका अभाव होजता है और शरीर, मन, बना लेता है। इसलिये जीवके परिणामोंकी प्रेरणा वचन नहीं रहते जिससे उन्हें किसी भी कामके करने मन, वचन और कायके परिस्पन्दनसे पुद्गलके की चिन्ता नहीं होती है, न किसी कामकी वे. परिमाणु अपनी शक्ति विशेषके कारण जीवसे आकर आज्ञा देते हैं, अतएव जगतकतृत्वका प्रसङ्ग इन चिपट जाते हैं, जिससे जीवके स्वाभाविक गुण राग-द्वेषसे रहित स्वतन्त्र परमात्माओंको प्राप्त मलिन होजाते हैं। यह मलिनता सदासे चली आरही नहीं होता' है। है, जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा इसे अलग कर पर____यह विश्व सदासे है और सदा रहेगा; (world मात्मा बन जाता है। is eternal) न कभी बना है और न कभी नाश पुगल-यह द्रव्य मूर्तिक है, इसमें रूप, रस, होगा। इसमें प्रधानतः जड और चेतन दो प्रकारके गन्ध और स्पशे चार गुण पाये जाते हैं। जितने पदार्थ हैं । इनका कभी नाश नहीं होता है, पदार्थ हमें आँखोंसे दिखलाई पड़ते हैं वे सब केवल इनकी अवस्थाएँ बदला करती हैं। इस परि- पौगलिक हैं । इसमें मिलने और बिछुड़नेकी योग्यता वर्तनमें भी कोई बाह्य ईश्वरादि शक्ति कारण नहीं है यह स्कन्ध-पिण्ड और परमाणुके रूपमें पाया है; किन्तु षड्द्रव्योंका स्वाभाविक परिणमन ही जाता है। शब्द (sound), बन्ध (union), सूक्ष्म कारण है। जैन मान्यतामें जीव, पुदल, धर्म, अधर्म, (ineness), स्थूल (grassness), संस्थान-भेदआकाश और काल ये छः द्रव्य माने गये हैं. इन तमच्छाया (shape, division, darkness and समवाय-एकीकरण ही लोक२ है। इन image),.उद्योत-आतप (lustre heat) ये सब द्रव्योंमें गुण और पर्याय ये दो प्रकारकी शक्तियाँ हैं। पुद्गल द्रव्यकी पर्यायाएँ (modification) हैं। इसके जो एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यसे पृथक् करता है उसे अनेक भेद-प्रभेद और भी बताये गये हैं, जिनसे गुण एवं द्रव्योंकी जो अवस्थाएँ बदलती हैं उन्हें जीवोंके प्रायः सभी व्यवहारिक कार्य चलते हैं। पयोय कहते हैं। गुण और पर्यायोंके कारण ही धर्मद्रव्य'-जैन आम्नायमें इसे पुण्य-पापरूप द्रव्योंकी व्यवस्था होती है। नहीं माना गया है, किन्तु जीवों और पुद्गलोंके हलन___ जीव-चैतन्य ज्ञानादि गुणोंका धारी जीव चलनमें बाहिरी सहायता (Assists the moveद्रव्य है। यह अपनी उन्नति और अवनति करने में ment of moving) प्रदान करने वाले सूक्ष्म स्वतन्त्र है, किसी के द्वारा शासित नहीं है, इसका अमूत्ते पदार्थको धर्मद्रव्य माना है। यह आते, जाते, विकास अपने हाथों में है, इसे स्वतन्त्र होनेके लिये " गिरते, पड़ते, हिलते, चलते पदार्थों को उनकी गतिमें किसीके आश्रित रहनेकी आवश्यकता नहीं। किन्त मदद करता है, बलपूर्वक किसीको नहीं चलाता, इतनी बात अवश्य है कि जीव अपनी स्वाभाविक किन्तु उदासीनरूपसे चलते हुए पदार्थोंकी गतिमें सहायक होता है । इसका अस्तित्व समस्त लोकमें १ अट्टविहकम्मवियला सीदीभदा णिरंजणा णिच्च । पाया जाता है। अगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥ The Jain philosophers mean by Dha-गो० सा० जी० गा०६८ rama kind of ether, which is the ful २ लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइ णिहणो सहावणिव्वत्तो । crum of Motion, with the help of जवाजीवहिं फुडो सब्वागासावयवो णिच्चो । Dharam, Pudgala and Jiva move. -त्रिलोकसागर गा०४ -द्रव्यसंग्रह पृष्ट ५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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