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मूर्तियाँ भी उन्होंने निर्माण कराई थीं । नगर में मनोरम पुष्पवाटिकाएँ ( Parks) बनवाकर उन्होंने नगरकी शोभाको बढ़या था और नागरिकों को सुखसुविधा प्रदान की थी। नागरिक उनमें जाकर नन्दकेलि करते थे । इतनेपर भी सालुवेन्द्रको इस बात का ध्यान था कि नगर में धर्ममर्यादा अक्षुण्णं रहे । इसीलिये वह मन्दिरोंकी धर्मव्यवस्था ठीक रखनेके लिए सतर्क रहते थे । मन्दिरोंमें नियमित धर्म क्रियाएँ होती रहें, इसके लिए उन्होंने दानव्यस्था की थी । देवपूजा, चतुविध दान और विद्वानोंको निरन्तर वृत्तियाँ दी जाती थीं । सारांश यह कि सालुवेन्द्र नरेशने राजत्वके आदर्शको निभाया और धर्ममर्यादाको आगे बढ़ाया था !
अनेकान्त
इन सालुवेन्द्र नरेशके राजमन्त्री भी राजवंशके रत्न थे । उनका नाम पद्म अथवा पद्मण था । राजमर्यादाको स्थिर रखने में उनका उल्लेखनीय हाथ था । इसी से प्रसन्न होकर सालुवेन्द्रने उनको श्रगेयकेरे नामक ग्राम भेंट किया ! किन्तु पद्म इतने समुदार और धर्मवत्सल थे कि उन्होंने वह ग्राम जिनधर्मके उत्कर्षके लिये दान कर दिया । 'जैनंजयतु- शासनं ' सूत्र मूर्तमान इस प्रकार ही था । उन्होंने अपने नामपर 'पद्माकरपुर' नामक ग्राम बसाया था । सन् १४९८ ई० में उन्होंने उस ग्राममें एक भव्य जिनालय निर्माण कराया और उसमें भगवान पार्श्वनाथ की दिव्यमूर्ति विराजमान की थी। महामण्डलेश्वर इन्दगरस घोडेयरकी इच्छानुसार उन्होंने उसके लिए भूमिदान दिया था । उस मन्दिरमें निरन्तर अभय ज्ञान - भैषज्य आहार दान दिया जाता था। जैन मन्दिर लोकोपकारक शिक्षाके केन्द्र होरहे थे - वे भुवनाश्रय थे । जीवमात्र उनमें पहुँच कर अपना आत्मकल्याण करते थे ।
महामण्डलेश्वर इन्दगरस सालुवेन्द्रनरेशके छोटे थे । वे महामण्डलेश्वर साङ्गिराज के पुत्र थे । इन्दगरस 'इम्मडि सालुवेन्द्र' नामसे प्रसिद्ध थे। उनका नाम सैनिक प्रवृत्तियों के कारण खूब चमक रहा था । वह एक बहादुर योद्धा थे । सन् १४९१के एक शिलालेख
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में उनके शौर्यका विवरण है। उसमें लिखा है कि उन्होंने शौर्य देवताको जीत लिया था । कर्मसूर होनेके साथ वह धर्मसूर भी थे । धर्मकार्य वह निरन्तर करते थे । बिडिरू ( वेणुपुर ) में वर्द्धमान स्वामीका मन्दिर था । इन्दगरसने उस मन्दिर के प्राचीन भूमिदानका पुनरुद्धार जैनधर्मको उन्नत बनानेके लिये किया था ।
सङ्गीतपुर के अवशेष नरेशों में सालुब मल्लिराय, सालु देवराय और सालुब कृष्णदेव जैनधर्मके प्रसङ्गमें उल्लेखनीय है । कृष्णदेवकी माता पद्माम्बा विजयनगर सम्राट् देवराय प्रथमकी बहन थीं । सन १५३० ई० के दानपत्रसे स्पष्ट है कि इन तीनों राजाओं ने प्रसिद्ध जैनगुरु वादी विद्यानन्दको आश्रय दिया था। सालुब मल्लिराय और सालुब देवरायने राजदरबारों में उन्होंने परवादियोंसे सफल वाद किया था । कृष्णदेवने श्रीविद्यानन्दके पाद- पद्मोंकी पूजा की थी ।
(मेडियावल जैनीज्म, पृष्ठ ३१४-३१८ देखें) -सन् १५२९ ई०के एक लेखसे स्पष्ट है कि सम्राट कृष्णराय के शासनकाल में सङ्गीतपुरका शासनसूत्र गुरूरायके हाथमें था, जो जेरसप्पे के शासकोंसे सम्बन्धित थे । गुरूराय भी अपने पूर्वजोंके समान जैनधर्मके अनन्य भक्त थे । वह 'रत्नत्रयधर्माराधक''जैनधर्मध्वजारोहक ' - 'स्वर्णिम जिनमन्दिरों और मूर्तियोंके निर्माता' कहे गये हैं। इन विरुदोंसे उनकी जिनधर्मके प्रति भक्ति और श्रद्धा प्रगट होती है । इनकी सन्ततिमें हुए भैरव नरेशने आचार्य वीरसेनकी आज्ञानुसार वेणुपुर के 'त्रिभुवनचूड़ामणि- वस्ती' नामक मन्दिरकी छतपर ताँबेके पत्र लगवाये थे । उनके कुलदेव भगवान पार्श्वनाथ और राजगुरु पण्डिताचार्य वीरसेन थे। उनकी रानी नागलदेवी भी भक्तवत्सला श्राविका थी उन्होंने उपर्युक्त मन्दिर के सम्मुख एक सुन्दर मानस्तम्भ बनवाया था। उनकी पुत्रियाँ (१) लक्ष्मीदेवी और (२) पण्डितादेवी भी अपनी माँकी तरह धर्मात्मा थीं । वे निरन्तर जैन साधुओं को दान दिया करती थीं। जब भैरव नरेश
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