SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६ अनेकान्त [वर्ष ९ स्थितियोंसे निर्मित और परिवर्तित होते हैं। अतः १–भौतिक और बौद्धिक उन्नतिके साथ नैतिक उन्नतिसमस्त समाजकी यदि भोजन-छादनकी सुव्यवस्था को चरम लक्ष्य स्वीकार करना । होजाय तो फिर सभी आध्यात्मिक उन्नतिकी ओर २-आत्माको अमर मानकर उसके विकासके लिये अग्रसर हो सकें । अतएव शक्तिके अनुसार कार्य वैयक्तिकरूपसे प्रयत्न करना । जहाँ भौतिक और आवश्यकतानुसार पुरस्कारवाले नुस्खेका उन्नतिमें समाजको सर्वोपरि महत्ता प्राप्त है, वहाँ प्रयोग समाज और व्यक्ति दोनोंके विकासमें अत्यन्त आत्मिक उन्नतिमें व्यक्तिको। सहायक होगा। ३–बलप्रयोग-द्वारा विरोधी शक्तियोंको नष्ट न करना, - उपर्युक्त जैनधर्मके सिद्धान्तोंकी आजके समाज- बल्कि विचार-सहिष्णु बनकर सुधार करना । वादके सिद्धान्तोंके साथ तुलना करनेप ज्ञात होगा ४-अधिनायकशाहीकी मनोवृत्ति-जो कि । कि आजके समाजवादमें जहाँ व्यक्ति-स्वातन्त्र्यको समाजवादमें कदाचित् उत्पन्न हो जाती है और विशेष महत्ता नहीं, वहाँ जैनधर्मके समाजवादमें । नेशनके नामपर व्यक्तिके विचार-स्वातन्त्र्यको .. व्यक्ति-स्वातन्यको बड़ी भारी महत्ता दी गई है, और कुचल दिया जाता है, जैनधर्ममें इसे उचित उसे समाजकी इकाई स्वीकार करते हुए भी समाजकी। नहीं माना है। श्रीवृद्धिका उत्तरदायी माना है । यद्यपि आज भी ५-हिंसापर विश्वास न कर अहिंसा द्वारा समाजका समाजवादके कुछ आचार्य उसकी कमियोंको समझकर सङ्गठन करना तथा प्रेम-द्वारा समस्त समाजआध्यात्मिकवादका पुट देना उचित मानते हैं तथा की विपत्तियोंका अन्त कर कल्याण करना। उसे भारतीयताके रङ्गमें रङ्गकर उपयोगी बनानेका ६–व्यक्तिकी आवाजकी कीमत करना तथा बहुमत प्रयत्न कर रहे हैं। जैनधर्मके उपर्युक्त सिद्धान्त निम्न या सर्वमत-द्वारा समाजका निर्माण और विकास समाजवादके सिद्धान्तोंके साथ मेल खाते हैं करना । १-समाजको अधिक महत्व देना, पर व्यक्तिके वर्तमान जैनधर्मानुयायी ऊपर जबरदस्ती किसी भी बातको न लादना । आज जैनधर्मके अनुयायियोंके आचरणमें इकाईके समृद्ध होनेपर ही समाज भी समृद्ध हो समाजवादकी गन्ध भी नहीं है। इसीलिये प्रायः सकेगाके सिद्धान्तको सदा ध्यानमें रखना। लोग इसे साम्राज्यवादी धर्म समझते हैं। वास्तविक २-एक मानव-जाति मानकर उन्नतिके अवसरोंमें बात यह है कि देश और समाजके वातावरणका समानताका होना। प्रभाव प्रत्येक धर्मके अनुयायियोंपर पड़ता है। अतः ३-विकासके साधनोंका कुछ ही लोगोंको उपभोग समय-दोषसे इस धर्मके अनुयायी भी बहुसंख्यकोंके करनेसे रोकना और समस्त समाजको उन्नतिके प्रभावमें आकर अपने कर्त्तव्यको भूल बैठे, केवल रास्तेपर ले जाना। बाह्य आचरण तक ही धर्मको सीमित रखा । अन्य ४-पूजीवादको प्रोत्साहन न देना, इसकी विदाईमें संस्कृतियोंके प्रभावके कारण कुछ दोष भी समाजमें ही समाजकी भलाई समझना। प्रविष्ट होगये हैं तथा अहिंसक समाजकी अहिंसा ५-हानिकारक स्पर्धाको जड़से उखाड़ फेंकना। केवल बाह्य आडम्बर तक ही सीमित है। फिर भी ६-शोषण, हीनाधिकताकी भावना, ऊँच-नीचका इतना तो निष्पक्ष होकर स्वीकार करना पड़ेगा कि व्यवहार, स्वार्थ, दम्भ आदिको दूर करना। भगवान महावीरकी देन जैन समाजमें इतनी अब ७-समाजको प्रेम-द्वारा सङ्गठित करना। १ सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । जैनधर्मके समाजवादमें आजके समाजवादी सर्वापदामन्तकर निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।। सिद्धान्तोंसे मौलिक विशेषताएँ -युक्तयनुशासन श्लो०६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy