SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ अनेकान्त वर्ष ९] जोड़े-झग्गों आदिपर रुपये रखने आदिके रूपमें से नीचे दौड़ी चली आकर किवाड खोला करती थी, किये जाते हैं। __तुम्हें अँधेरेमें भी डर नहीं लगता था, जब कि तुम्हारा नाम मैंने केवल अपनी रुचिसे ही नहीं तुम्हारी माँ कहा करती थी कि मुझे तो डर लगता रक्खा था बल्कि श्रीआदिपुराण-वर्णित नामकरण- है, यह लड़की न मालूम कैसी निडर निभय प्रकृतिसंस्कारके अनुसार १००८ शुभ नाम अलग-अलग -शभ नाम अलग-अलग की है जो अँधेरे में भी अकेली चली जाती है। तम्हारी कागजके टुकड़ोंपर लिखकर और उनकी गोलियाँ बना- इस हिम्मतको देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती थी। कर उन्हें प्रसूतिगृहमें डाला था और एक बच्चेसे एक एक दिन रातको मुझे स्वप्न हुआ कि एक अर्धनग्न गोली उठवाकर मँगाई गई थी। उस गोलीको खोलने श्यामवर्ण स्त्री अपने आगे पीछे और इधर उधर मरे पर 'सन्मतिकुमारी' नाम निकला था और यही हुये बच्चोंको लटकाए हुए एक उत्तरमुखी हवेलीमें तुम्हारा पूरा नाम था। यों आम बोल-चालमें तुम्हें प्रवेश कर रही है जो कि ला० जवाहरलालजी जैन 'सन्मती' कहकर ही पुकारा जाता था। की थी। इस बीभत्स दृश्यको देखकर मुझे कुछ - तुम्हारी शिक्षा वैसे तो तीसरे वर्ष ही प्रारम्भ भय-सा मालूम हुआ और मेरी आँख खुल गई। होगई थी परन्तु कन्यापाठशालामें तुम्हें पाँचवें वर्ष अगले ही दिन यह सुना गया कि ला० जवाहरलालबिठलाया गया था। यह कन्यापाठशाला देवबन्दकी जीके बड़े लड़के राजारामको लेग होगई, जिसकी थी, जहाँ सहारनपुरके बाद सन् १९०५ में मैं हालमें ही शादी अथवा गौना हुआ था ! यह लड़का मुख्तारकारीकी प्रेकटिस करनेके लिये चला गया था बड़ा ही सुशील, होनहार और चतुर कारोबारी था और कानूगोयानके मुहल्ले में ला० दूल्हाराय जैन साबिक तथा अपनेसे विशेष प्रेम रखता था । तीन-चार दिन पटवारीके मकानमें उसके सूरजमुखी चौबारेमें रहता में ही यह कालके गालमें चला गया !! इस भारी था । निद्धी पण्डित, जो तुम्हें पढाता था, तुम्हारी बद्धि जवान मौतसे सारे नगरमें शोक छागया और लेग और होशयारीकी सदा प्रशंसा किया करता था। मुझे भी जोर पकड़ती गई। तुम्हारे गुणोंमें चार गुण बहुत पसन्द थे-१ सत्य- कुछ दिन बाद तुम्हारी माताने कोई चीज बनावादिता, २ प्रसन्नता, ३ निर्भयता और ४ कार्य- कर तुम्हारे हाथ ला० जवाहरलालजीके यहाँ भेजी कुशलता । ये चारों गुण तुममें अच्छे विकसित होते थी वह शायद शोकके मारे घरपर ली नहीं गई तब जारहे थे। तुम सदा सच बोला करती थी और प्रसन्न- तुम किसी तरह ला० जवाहरलालजीको दुकानपर चित्त रहती थी। मैंने तुम्हें कभी रोते-रडाते अथवाजिद्द उसे दे आई थी। शामको या अगले दिन जब ला० करते नहीं देखा। तुम्हारे व्यवहारसे अपने-पराये जवाहरलालजी मिले तो कहने लगे कि-'तुम्हारी सब प्रसन्न रहते थे और तुम्हें प्यार किया करते थे। लड़की तो बड़ी होशयार होगई है, मेरे इन्कार करते सहारनपुर मुहल्ले चौधरियानके ला० निहालचन्दजी __हुए भी मुझे दुकानपर ऐसी युक्तिसे चीज दे गई कि और उनकी स्त्री तो, जो मेरे पासकी निजी हवेलीमें मैं तो देखकर दङ्ग रह गया।' इस घटनासे एक या रहते थे, तुमपर बहुत मोहित थे, तुम्हें अक्सर अपने दो दिन बाद तुम्हें भी लेग होगई ! और तुम उसीमें पास खिलाया-पिलाया और सुलाया करते थे, उसमें माघ सुदी १०मी संवत् १९६३ गुरुवार तारीख २४ सुख मानते थे और तुम्हें लाड़में 'सबजी' कह जनवरी सन् १९८७को सन्ध्याके छह बजे चल बसी!! कर पुकारा करते थे-तुम्हारे कानोंकी बालियोंमें उस कोई भी उपचार अथवा प्रेम-बन्धन तुम्हारी इस वक्त सबजे पड़े हुये थे। जब कभी मैं रातको देरसे विवशा गतिको रोक नहीं सका !!! घर पहुँचता और इससे दहलीज़के किवाड बन्द हो तुम्हारे इस वियोगसे मेरे चित्तको.बडी चोट जाते तब पुकारनेपर अक्सर तुम्ही अँधेरेमें ही ऊपर लगी थी और मेरी कितनी ही आशाओंपर पानी फिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy