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की। साथ ही साथ ग्रन्थों को मंगाकर उनकी नकल-प्रेसकापी तय्यार कर संशोधन, प्रकाशन तक की सारी जिम्मेवारी मेरे पर डाल दी। मैंने इन पांचो ग्रन्थों की प्रेसकापी तो अविलंब कर डाली पर छापने का काम में विलम्ब ही विलम्ब होता गया। इसी बीच उपाध्यायजी महाराज का स्वर्गवास हो गया वे अपने जीवन में इन ग्रन्थों को प्रकाशित नहीं देख सके। लक्ष्मीचंदजी ने अपने बड़े भ्राता श्री अभयचंदजी से निवेदन किया तो उन्होंने इन ग्रन्थों को शीघ्र प्रकाशित कर देना स्वीकार किया पर विधि को विलम्ब स्वीकार था ओर लम्बे समय के बाद केवल युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि चरित्र ही प्रकाश में आ रहा है। दूसरे काव्यों को भी प्रकाशित करने की भावना होते हुए भी केवल मणिधारी श्रीजिनचंद्रसूरिजी का जीवनचरित-काव्य उनके अष्टम शताब्दी महोत्सव के उपलक्ष में प्रकाशित स्मृत ग्रन्थ में दिया गया है अवशिष्ट काव्य-ग्रन्थों को भविष्य में शीघ्र प्रकाशित करने का विचार है।।
प्रस्तुत युगप्रधान जिनचंद्रसूरि चरित ६ सर्गों में विभक्त है और इस में कुल १२१२ पद्य और कुछ गद्य भी है। हमारे साधु-साध्वी इस संस्कृत चरित्र को व्याख्यानादि में स्थान दें तो जनता को महान् शासन-प्रभावक आचार्य की जीवनी का आवश्यक परिचय मिल सकेगा। यों हमारे मूल हिन्दी ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद स्वर्गीय गुलाबमुनिजी की प्रेरणा
ग्यारह
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