Book Title: Yatilakshan Samucchay Prakaran
Author(s): Rajshekharsuri
Publisher: Arihant Aradhak Trust
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યતિલક્ષણ સમુચ્ચય પ્રકરણ
૨૨૯
ગાથા-૧૮૧
अन्नदिणे. थावच्चासुयपहुपयवत्तिसुयगुरुसमीवे । पंचहि मंतिसएहिं, पंथगपमुहेहि परियरिओ ॥५॥ मडगपुत्ते रज्जं, ठविऊणं गिण्हए वयं राया । इक्कारस अंगाई, अहिज्जिओ वज्जियावज्जो ॥६॥ पंथगपमुहाण तओ, पंचमुणिसयाण नायगो ठविओ । सुयमुणिवरेण सेलगरायरिसी जिणसमयविहिणा ॥७॥ सुयसूरी उ महप्पा, समए आहारवज्जणं काउं । सिरिविमलसिहरिसिहरे, सहस्ससहिओ सिवं पत्तो ॥८॥ अह सेलगरायरिसी, अणुचियभत्ताइभोगदोसेण । दाहजराईतविओ, समागओ सेलगपुरम्मि ॥९॥ उज्जाणंमि पसत्थे, सुभूमिभागंमि तं समोसरियं । सोऊण पहि?मणो, विणिग्गओ मड्डओ राया ॥१०॥ कयवन्दणाइकिच्चो, संरीरवत्तं वियाणिउं गुरुणो । विन्नवइ एह भन्ते! मम गेहे जाणसालासु ॥११॥ भत्तोसहाइएहिं, अहापवत्तेहिं तत्थ तुम्हाणं । कारेमि जेण किरियं, धम्मसरीरस्स रक्खट्ठा ॥१२॥ तथा चोक्तम्"शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । श्रवेच्छरीरतो धर्मः, पर्वतात्सलिलं यथा ॥१३॥ पडिवन्नमिणं गुरुणा, पारद्धा तत्थ उत्तमा किरिया । निद्धमहुराइएहिं, आहारेहिं सुविजेहिं ॥१४॥ विजाण कुसलयाए, पत्थोसहपाणगाइधुवलाभा । थेवदियहेहिं एसो, जाओ निरुओ य बलवं च ॥१५॥ नवरं सिणिद्धपेसलआहाराईसु मुच्छिओ धणियं । सुहसीलयं पवन्नो, निच्छइ गामंतरविहारं ॥१६॥ बहुसोवि भणिजन्तो, विरमइ नो जाव सो पमायाओ । ताहे पन्थगवज्जा, मुणिणो मंतंति एगत्थ ॥१७॥

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