________________ सम्पादकीय जैनागम जैन धर्म परम्परा की अमूल्य धरोहर हैं / आगमों में आध्यात्मिक साधना के असंख्य अमृतसूत्र संकलित हैं। उन सूत्रों के अध्ययन, मनन व आराधन से विगत अढाई हजार वर्षों से वर्तमान पर्यंत असंख्य-असंख्य भव्यजीवों ने आत्मकल्याण का संपादन किया है। कल्याण के कारणभूत होने से जैनागम एकान्त रूप से कल्याणरूप और मंगलरूप हैं। जैनागम जैन धर्म के परमाधार हैं। जैन परम्परा के मनीषी मुनियों ने प्रारंभ से ही आगमों के संरक्षण के लिए विलक्षण प्रयास किए हैं। परन्तु काल के प्रभाव से निरन्तर ह्रासमान स्मरण शक्ति और समय-समय पर पड़ने वाले दुष्कालों की काली छाया ने आगमों के एक बृहद्भाग को जैन जगत से छीन लिया है। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् श्रुत संरक्षा के लिए समयसमय पर कई वाचनाएं समायोजित हुईं। उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण वाचना भगवान महावीर के निर्वाण के 980 वर्ष पश्चात् देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में वल्लभी नगरी में हुई। गुरु-शिष्य के द्वारा श्रुत-परम्परा से चली आ रही श्रुत राशि के संरक्षण हेतु आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने आगमों को पुस्तकारूढ़ करने का क्रांतिकारी निर्णय लिया। उनके उस निर्णय के परिणामस्वरूप ही श्रुत साहित्य में समरूपता और सुस्थिरता आई। इस दृष्टि से आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण का जिन परम्परा पर महान उपकार है। समय-समय पर विभिन्न विद्वान जैन आचार्यों और मनीषी मुनियों ने आगमों पर चूर्णियों, वृत्तियों और भाष्यों की रचनाएं की। परन्तु इन सभी रचनाओं की भाषा या तो संस्कृत रही या फिर प्राकृत ही। साधारण मुमुक्षु पाठकों का आगमों में प्रवेश जटिल ही बना रहा। विगत कुछ राताब्दियों से यह अतीव आवश्यकता अनुभव की जा रही थी कि जैनागमों का सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद हो। विगत शती में कुछ विद्वान मनीषी महामहिम मुनिराजों ने इस ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया, जिनमें कुछेक प्रमुख सुनाम हैं-आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज, आचार्य श्री घासीलाल जी महाराज और आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज। जैन धर्म दिवाकर, जैनागम रत्नाकर आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज का इस दिशा में जो श्रम और योगदान रहा वह अपने आप में अद्भुत और अनुपम है।आगम के दुरूह और दुर्गम विषय को आचार्य देव ने जिस सरल शब्दावली में निबद्ध और प्रस्तुत किया वह किसी चमत्कार से कम नहीं है। अपने जीवन काल में आचार्य श्री ने अठारह आगमों पर बृहद् टीकाएं लिखीं। उन द्वारा कृत टीकाएं आगमों को सहज ही सर्वगम्य बना देती हैं।आबाल वृद्ध और अज्ञसुज्ञ समान रूप से उनकी टीकाओं के स्वाध्याय से आगम के हार्द को सरलता से हृदयंगम कर 6 ] श्री विपाक सूत्रम् [संपादकीय