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॥ सामासिकः ॥
॥ उभयपदार्थप्रधानो बन्दः * ॥
चार्थे द्वन्दः ॥ २१ २ । २६ ॥ जो चकार के अर्थ में वर्तमान अनेक सुबन्त, वे सुचन्त के साथ समास पावें सो द्वन्द्वसंज्ञकसमास हो । चकार के चार अर्थ हैं, समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतर और समाहार । सो समुच्चय । और श्रन्याचय इन अर्थों में असमर्थ होने से सगास नहीं हो सकता और इतरेतर तथा समाहार अर्थों में द्वन्द्व समास हो, प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च तो प्ल. क्षन्यग्रोधौ । धवश्व खदिरश्च पलाशश्च ते धवखदिरपलाशाः ॥
. द्वन्द्वाच्चुदषहान्तात्समाहारे ।। ५ । ४ । ७ ॥
जो द्वाद समाहार अर्थ में वर्तमान हो तो चवर्गान्त दान्त और हान्त द्वन्द्व समास से समासान्त टच् प्रत्यय हो । जैसे-बाक् च त्वक् च अनयोः समाहारः वाक्त्वचम् । सक् च त्वक् च सक्त्वचम् । श्रीश्च स्रक् च श्रीस्रजम् । इडूर्जम् । वागूजम् । समिधश्च दृषदश्च समिद्दषदम् । संपद्विपदम् । वाविप्रुषम् । छत्रोपानहम् । धेनुगदुहम् । द्वन्द्वादिति किम् । तत्पुरुषान् मा भूत् । पञ्चवाचः समाहृताः पञ्चवाक् । चुदषहान्तादिति किम् । वाक्सगित् ॥
उपसर्जनं पूर्वम् ॥ २ ॥ २ ॥ ३० ॥ सब समासों में उपसर्जनसंज्ञक का पूर्व प्रयोग करना चाहिये । कष्टं श्रितः कष्ट- , श्रितः । शङ्कुलाखण्डः इत्यादि ।
राजदन्तादिषु परम् ॥ २ । २ । ३१ ॥ सब समासों में राजदन्त आदि शब्दों का परे प्रयोग होता है । दन्तानां राजा राजदन्तः । अग्रेवणम् । लिप्तवासितम् ।।
द्वन्द्वे घि ॥ २ ॥२ । ३२ ॥ द्वन्द्व समास में घिसंज्ञक शब्द का पूर्वनिपात होता है । पटुश्च गुप्तश्च पटुगुप्तौ ॥
वा.-अनेकप्राप्तावेकस्य नियमः शेषेष्वनियमः॥ जहां अनेक घि संज्ञकों का पूर्वनिपात प्राप्त हो वहां एक घिसंज्ञक पूर्व प्रयोक्तव्य है। और जो शेष रहैं उन में कुछ नियम नहीं है । पढमृदुशुक्लाः । पटुशुक्लमृदवः ॥
* द्वन्द्व समास में पूर्व पर सब शब्दों के अर्थ प्रधान रहते हैं ।
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