Book Title: Vedang Prakash
Author(s): Dayanand Sarasvati Swami
Publisher: Dayanand Sarasvati Swami

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Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सामासिकः ॥ परेर्वर्जने ॥ ८।१॥५॥ पर्जन अर्थ में जो परि हो तो उस को द्वित्व हो । परि २ त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । परि २ सौवीरेभ्यः । वर्जन इति किम् । ओदनं परिषिञ्चति ।। वा---परेर्वर्जनेऽसमासे वेति वक्तव्यम् ॥ असमास * अर्थात् जिस पक्ष में समास नहीं होता वहां विकल्प करके द्विवचन हो। परि २ त्रिगर्तेभ्यो वृष्टोदेवः । परित्रिगर्तेभ्यः ।। प्रसमुपोदः पादपुरणे ॥ ८ ॥ १॥ ६॥ पाद पूरा करना ही अर्थ होतो प्र सम् उप उद् इन को द्वित्व हो । प्रप्रायमग्निभरतस्य शृण्वे । संसमिधुवसे वृषन् । उपोपमे परामृश । किन्नोदुदुहर्षसे दातवाउ ।। उपर्यध्यधसः सामीप्ये ॥ ८ ॥ १ ॥ ७॥ उपरि अधि और अधस् इन को द्वित्व हो समीप अर्थ में । उपर्यापरि दुःखम् । उपर्युपरिग्रामम् । अध्यधिग्रामम् । अधोधोवनम् । सामीप्य इति किम् । उपरिचन्द्रमाः । पाक्यादेरामन्त्रितस्यासूयासंमतिकोपकुत्सनभर्सनेषु ॥ ८।१।८॥ ___असूया आदि अर्थों में जो वाक्य उस का आदि जो आमन्त्रित पद उस को द्वित्व हो ( असूया ) और के गुणों को न सहना ( सम्मति ) सत्कार (कोप ) क्रोध (कुत्सन ) निन्दा ( भर्त्सन ) f धमकाना ( असूया ) माणवक ३ माणवक अभिरूपक ३ अभिरूषक रिक्तन्ते आभिरूप्यम् । ( संमति ) माणवक ३ माणवक अभिरूपक ३ अभिरूपक शोभनः खल्वसि ( कोप ) देवदत्त ३ देवदत्त अविनीतक ३ अविनीतक संप्रति वेत्स्यसि दुष्ट ( कुत्सन ) शक्तिके ३ शक्तिके यष्टिके ३ यष्टिके रिक्ताते शक्तिः ( भर्त्सन ) चौर चौर ३ वृषल वृषल ३ घातयिष्यामि त्वा बन्धयिष्यामि त्वा । वाक्यादेरिति किम् । अन्तस्य मध्यस्य च माभूत् । शोभनः खल्वसि माणवक । आमन्त्रितम्येति किम् । उदारो देवदत्तः । अस्यादिग्विति किम् । देवदत्त गामभ्याज शुक्लम् ।। *अध्ययीभाव समास का विकल्प"विभाषा"अधिकार में (अपपरि०)इस सूत्र से होजाता है। कोप और भर्सन में इतना भेद है कि कोप में अन्तःकरण से दूसरे को दुःख देना चाहता है और भर्त्सन में ऊपर ही का तेजमात्र दिखाया जाता है । For Private and Personal Use Only

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