Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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हैं। पादटिप्पणी में समाविष्ट सन्दर्भ प्रायः सम्बद्ध मूलग्रन्थों से ही उद्धृत है । मूलग्रन्थों की दुर्लभता की स्थिति में कहीं-कहीं सम्बद्ध सन्दर्भो को अनूद्धृत भी किया गया है। अमूल और अनपेक्षित से प्रायः . बचने का मेरा सहज प्रयास रहा है । फिर भी, त्रुटियाँ और स्खलन मानव की सहज दुर्बलता है, इसलिए मैं इस सूक्ति के प्रति आस्थावान् हूँ :
धावतां स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः ।
हसन्ति दुर्जनास्तत्रोत्तोलयन्ति हि पण्डिताः ॥ इस सारस्वत महायज्ञ की पूर्णाहुति अपार भगवत्कृपा से ही सम्भव हुई है । व्यावहारिक दृष्टि से, इस बहुविन श्रेयःकार्य की पूर्णता का श्रेय मेरे सहृदयहृदय सुधी शोध-पुरोधा तथा सौस्नातिक मित्र डॉ. रामप्रकाश पोद्दार (तत्कालीन निदेशक, प्राकृत-शोध-संस्थान, वैशाली) को है, जिन्होंने वैदुष्यपूर्ण परामर्श के साथ ही सामयिक प्रोत्साहन तथा प्रेरणा से मझे स्वीकत ग्रन्थलेखन-कार्य के प्रति सतत गतिशील बनाये रखा। मैं उनकी सारस्वत अधमर्णता सहज ही स्वीकार करता हूँ । कर्नाटक कॉलेज, धारवाड़ के प्राकृत-विभाग के रीडर विद्वद्वरेण्य डॉ. बी. के. खडबडी का मैं अन्तःकृतज्ञ हूँ, जिन्होंने कतिपय तात्त्विक विषयों के विनिवेश का निर्देश देकर ग्रन्थ की प्रामाणिकता को ततोऽधिक परिपुष्ट किया है।
ग्रन्थ-लेखन की अवधि में सन्दर्भ-सामग्री की सुलभता के लिए प्राकृत शोध-संस्थान (वैशाली), बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् तथा रिसर्च सोसाइटी लाइब्रेरी (पटना) के अनुसन्धान-पुस्तकालयों तथा उनके प्रभारी पदाधिकारियों के सौजन्य-सहयोग के प्रति मैं सदा आभारी रहूँगा।
__ प्रस्तुत शोधग्रन्थ-लेखन की सम्पन्नता के निमित्त मुझे जिन सन्दर्भ-ग्रन्थों से साहाय्य और वैचारिक सम्बल उपलब्ध हुआ, उनके महाप्रज्ञ लेखकों के प्रति अन्तःकरण से आभारी होने में मुझे सहज गर्व का अनुभव होता है।
इस अवसर पर, मैं पुण्यश्लोक पं. मथुराप्रसाद दीक्षित (गुरुजी) तथा पुण्यश्लोक डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री जैसे शुभानुध्यायी मनीषियों का सश्रद्ध स्मरण करता हूँ । ज्ञातव्य है कि गुरुजी ने ही मुझे सर्वप्रथम प्राकृत के अध्ययन की प्रेरणा दी और डॉ. शास्त्री ने उस प्रेरणा की साकारता के लिए आचार्यमित्रोचित सक्रिय सारस्वत सहयोग और सहज स्नेहिल आत्मीयता के साथ मुझे उत्तेजित किया। अतिशय उदार एवं आत्मीयत्ववर्षी ऋजुप्राज्ञ साहित्यिक अभिभावक पुण्यश्लोक आचार्य शिवपूजन सहाय तथा आचार्य नलिनविलोचन शर्मा अपने मन में निरन्तर मेरे साहित्यिक उत्कर्ष की कामना सँजोये रहते थे। प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ उन दिव्यात्माओं के अमृतमय सारस्वत आशीर्वचन की अज्ञात-अप्रत्यक्ष शुभभावना का ही आक्षरिक पुण्यफल है, इसमें सन्देह नहीं।
मेरे इस श्रमसाध्य शोध-रचनात्मक अनुष्ठान में प्रारम्भ से अन्ततक मेरी गृहस्वामिनी श्रीमती लता रंजन 'सब' की प्रतिमूर्ति होकर, एक विचक्षण 'विधिकरी' की भाँति सुविधा की समिधा जुटाती रहीं और स्थल-स्थले पर, यथालिखित कथा-कान्त सामग्री को पढ़कर या हमारे द्वारा सुनकर उसमें निहित लोक-सामान्यता के भावों की अनकलता को उन्होंने न केवल अनशंसित किया. अपित अपेक्षित शब्दों के उचित संस्थापन का सुझाव भी दिया। निश्चय ही, यह शोध-ग्रन्थ उनकी ही गार्हपत्य तपस्या का सर्जनात्मक फल है। विशेष उल्लेख्य यह है कि मेरे परिवार के सभी प्रकार के सदस्य बाल-बच्चे,