Book Title: Vairagya Shataka
Author(s): Purvacharya, Gunvinay
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 120
________________ वैराग्यशतकम् للناقلت لي من كلية الفنان भाषांतर सहित ॥११८॥ ॥११८॥ DDDDDramayeताना आसीत् अनंतकृत्वः संसारेनरकभवे तब क्षुधापि तादृशी आसी. अगंतवुत्तो । संसारे ते बुहावि तारिसिया ॥ यां प्रशमयितुं सर्वः पुद्गलकायोपिघृतादिरपि न तीर्यात् न श यात् जं पर्समेउ संयो। पुग्गलकाओवि ने तारिजा ॥६६॥ ___अर्थ-रे जीव ! (संसारे के०) नरक भवरूप संसारने विषे (ते के०) तने (तारिसिया के०) तेवा प्रकारनी वुहावि | के०) क्षुधा पण (अणंतखुत्तो के०) अनंतिवार (आसी के०) उत्पन्न थइ हती के, (जं के०) जे क्षुधाने (पसमेउं के०) शमाववाने (सव्यो के०) सर्व एवा (पुग्गलकाओवि के०) घृतादिरूप पुद्गलना समूह जे ते पण (न तरिजा के०) न 0 न समर्थ थाय ! ॥६६॥ भावार्थ-हे आत्मन् ! नरक भवने विषे तने एवी क्षुधा उत्पन्न थइ हती के. आ जगत्मा रहेला जे घृतादिक २४ सघला सारा सारा पुद्गलोवडे पण, ते क्षुधानी शांति थाय तेम नहोतुं. एवी क्षुधावेदनी ते परवशपणामां अनंतीवार J सहन करी छे, माटे तने उपदेश करवानो एटलोज छे के, आज स्वाधिनपणामां एकासणुं करवू, अथवा एक उपवास करवो, तेमां पण तने महोटो विचार थइ पडे छे. अने वली तुं एबुं बोले छे के, महाराथी संवत्सरीनो उपवास Pal पण बनी शकवो कठग छे. कारण के, महाराधी तो एक घडिवार पण भूख्युं रहेवातुं नथी. एम कहीने अनेक प्रका रनां सारां सारां भोजन करावी जमे छे. परंतु हे मृढ जीव ! आखो जन्मारो थइने ते केटला मण धृतादिक मिष्ट | الجميعوفنافع Jain Education inter 2 010-05 For Private & Personal use only |www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176