Book Title: Vairagya Shataka
Author(s): Purvacharya, Gunvinay
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 140
________________ रतन घराग्य शतकम् ११३८ न त्यति त संसारमपि जीवाः अतिबद्धाः स्नहनिगडे ः में चैयंति पि जीवा । अईबद्धा नेहनिलेहिं ॥७८॥ भाषांतर साहन अर्थ-हे जीव ! (संसारो के०) आ संसार जे ते (दुहहेऊ के०) दुःखनुं कारण छे. तथा (दुःखफलो के०) दुःख Tel एज फल छ जेनुं एवा छे. (य के०) वली (दुसहदुक्म्वरूषो के०) दुखे करी सहन थाय, एवं जे दुःख ते रूप छे. तेमा (नेहनिअलेहि के०) नेहरूप वेडीवडे (अइबदा के०) अतिशे बंधायेला एवा (जीवा के०) जीव जे ते (तंपि के०) | संसारने पण (न चयंति के०) नथी त्याग करता. अर्थात् संसारने दुःखदोयक जाणे छे, तोयपण तेनो त्याग नथी करता. भवार्थ-आ संसारमा सर्व बंधन करतां प्रेमबंधन अतिशे महोडं छे. ते कडुं छे के: ॥ वसन्ततिलकाकृतम् ॥ रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं । भास्वानुदेव्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः ॥ इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे । हा हन्त हन्त नलिनी गज उज्जहार ॥ १ ॥ ॥स्वागतावृत्तम् ॥ बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि । प्रेमरज्जुकृतवन्धनमन्यत् ॥ दारुभेद निपुणोऽपि षडधि । मिष्क्रियो भवति पङ्कजकोशे ॥२॥ अर्थ-जेम कमलनो रस पीवाने बेठेलो एवो जे भमरो, ते मनमां विचार छे के, हवे संध्याकाल पडवा आवी و جوالك قد لا تعرفه www.jainelibrary.org. Jain Education Intel 2010 05 For Private & Personal Use Only

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