Book Title: Vairagya Shataka
Author(s): Purvacharya, Gunvinay
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 168
________________ भाषांतर शतकम् सहित ॥१६६॥ सुखरूपे सत्यरूपे धर्मरत्ने सुपरीक्षां ये न जाति बैराग्य सुहसच्चधम्मेरयणे । सुपरिक्खं जे न जाणेति ॥ ९९ ॥ अर्थ-(सुहसच्चधम्मरयणे के०) सुखकारी अने सत्य एवा धर्मरूप रत्नने विषे (जे के०) जे पुरुषो (सुपरिक्खं ॥१६६।। भली रीते परिक्षाने (न जागति के०) नथी जाणता. अर्थात् नधी जाणी शकता, (ताणं के०) ते (नराणं के०) पुरु | षोना (विनाणे के०) विज्ञानने विषे (तह के०) तथा (गुणेसि के०) गुणने विषे, (कुसलत्तं के०) कुशलपणाने (घिद्धि | | के०) धिक्कार थाओ ! धिक्कार थाओ !!॥ ९९ ॥ ____ भावार्थ-जगत्ने विषे जे पुरुषोनुं शिल्पचातुर्य, कलाकौशल्य, औदार्य तथा शौर्य धैर्यादिकने विषे कुशलपणुं । hal घणुंज वखणाय छे, एटले रबादिकनी परक्षा करवामां घणा डाह्या कहेवाय छे, ते पुरुषो सुखकारी अने सत्य एवा hd Pa| धर्मरूप रत्ननी परीक्षा, जो न करी शक्या, तो तेमना सघला डहापणपणाने अतिशे धिक्कार थाओ ! ! धिक्कार थाओ !!! ते उपर शास्त्रमा कयुं छे के, बहोतेर कलामां कुशल एवा पंडित पुरुषो होय, तोपण जो तेमणे सर्व कलामां श्रेष्ट एवी जे धर्मनी कला नथी जाणी, तो ते निश्चे अपंडितज जाणवा. माटे सर्व परक्षा करतां धर्मरूप रत्ननी | परिक्षा करवी, तेज श्रेष्ठ परीक्षा छे. ॥ ९९॥ ॥ अनुष्टुप् वृत्तम् ॥ जिनधर्मः अयं जीवानां अपूर्वः कल्पपादपः जिर्णधम्मो ऽयं जीवाणं । अपघुवो कप्पंपायवो ।। الفصل الثالث لكن ومنعون اور Jain Education Interest | 2010_05 For Private & Personal use only Diww.jainelibrary.org

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