Book Title: Vairagya Shataka
Author(s): Purvacharya, Gunvinay
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 158
________________ वैराग्यशतकम् ॥१५६॥ Jain Education Interna अर्थ - (रे जीव के०) हे जीव (तुमं के०) तुं (बुज्झसु के ) धर्मने विषे बोध पाम्य. अने (नाऊ के०) धर्मने जाणीने (जिणममि के०) जिनशासनने विषे ( मामुज्झसि के०) मोह न पाम्य. एटले सम्यक प्रकारे जिनधर्म अंगीकार कर्थ. (जम्हा के०) जे हेतु माटे (जीव के०) हे जीव ! (पुणरवि के० ) फरीने पण (एसा के०) आ (सामग्गी के०) धर्म सामग्री जे ते (दुल्ला के ० ) दुर्लभ छे. एटले फरी फरीने धर्म सामग्री मलवी दुर्लभ है. ॥ ९२ ॥ भावार्थ - हे आत्मन् ! धर्म साधन करवाना अंगरूप एटले मनुष्यनो भव, शुद्ध श्रद्धा, संजम, अने तेने विषे वीर्यनुं फोरaj, ते फरी फरीने चक्रवेधनी पेढे, मलवं महा दुर्लभ के एटले काकतालीया न्यायथी एक बखत त ल्युं छे, ते फरीधी मल अत्यंत दुर्लभ छे. ॥ ९२ ॥ दुर्लभ पुनः जिनधर्मः एकशोलब्धः त्वं प्रमादस्याकरः खानिः सुखैषोऐहिक मुखत्रांकः च दुर्लहो पुर्ण जिणर्धम्मो । तुम पमायांगरो सुसी यं ॥ दुःसहं अस्ति च नरकदुःखं कथंत्यं भविष्यसि अतः कारणात् सत् न जानीमः परलोके दुहं च नरयदुक्खं । कँह होहिसि " मैं याणामो ॥ ९३ ॥ अर्थ - हे जीव ! आ (जिणधम्मो के०) आ पामेलो जिनधर्म जे ते, (पुण के०) वली फरीथी पामवो (दुलहो महादुर्लभ छे, अने (तुम के०) तुं (पमायायरो के०) प्रमादनी खाग छे. अने (य के०) वलो (सुहेसी के०) सुखनी वांछा राखे छे, ते सुख त क्यांथी मलशे ? (च के० ) अने (नरयदुःखं के०) नरकनां दुःख जे ते (दुसहं के०) दुःखे 2010_05 For Private & Personal Use Only भाषांतर सहित ॥१५६॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176