Book Title: Vairagya Shataka
Author(s): Purvacharya, Gunvinay
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 160
________________ भाषांतर | सहित ॥१५८॥ अस्थिरेण स्थिरः समलेन निर्मलः परवशेनरोगादिना स्वाधीनः वैराग्य अधिरेण थिरो समले । ण निम्मैलो परसेण साहीणो॥ शतकम् देहेन यदि उपाय॑ते धर्मः तदा किं न पर्याप्तं किं न संपन्न ॥१५८॥ देहेने जंइ विढप्पइ । धम्मो ता कि में पजतं ॥ २४ ॥ अर्थ-रे जीव (जड के०) जो (अथिरेण के०) अस्थिर एवा, तथा (समलेण के०) मलसहित एवा, अने (परवk सेण के०) परवश एवा (देहेण के०) देहवडे (थिरो के०) स्थिर एवो, अने (निम्मलो के०) निर्मल एवो. अने (साही | णो के०) पोताने स्वाधीन एवो (धम्मो के०) धर्म जे ते (विढप्पइ के०) उपार्जन थइ शके छे, तो (नता के.) त्यारे | Ka सहारे (किं न पजतं के०) शुन प्राप्त थयुं ? अर्थात् सर्वे प्राप्त थयुं थयु. ॥ ९४ ॥ भावार्थ-हे जीव ! आ अशाश्वता देहवडे परलोकमा निरंतर सहायकारी एवो धर्म उपार्जन थाय छे, तो | ANY परिपूर्ण थयु ? अर्थात् सर्वे परिपूर्ण थयु. एटले घणो महोटो लाभ मल्यो, एम जाणवू. तेमज आ मलमूत्र भरेला देहवडे निर्मल एवो जिनधर्म उपार्जन थाय तो, शुपरिपूर्ण लाभ न मल्यो कहेवाय ? अर्थात् जगत्मा जेटला लाभ कहेवाय छे, ते सर्वे लाभ मली चूक्याज कहेवाय तेमज रोगादिकने आधीन एवा देहवडे जो स्वाधिन | एवो जिनधर्म मले, तो शुं एने काइ पण मलवानी खामी रही कहेवाय ? अर्थात् नज कहेवाय. ते का छे के, चिन्तारत्नमनयं चेत्याप्यते काचसंचयैः । रेणुना चेद्विरण्यं चेत्सुधाब्धिनीरबिन्दुना ॥ १ ॥ _JainEducation inten 0 10_05 For Private & Personal use only w.jainelibrary.org

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