Book Title: Vairagya Shataka
Author(s): Purvacharya, Gunvinay
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar
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बगाय
भाषांतर सहित
शतकम्
॥१५५॥
॥१५॥
रे जीव बुध्यस्व मामुह्य मा प्रमादधर्मे कुरु रेपाप रे जीव बुझं मामु । ज्झमी पायं करेसि रेपाव ॥ कि परलोके गुरुदुःखभाजनं भवसि हे अज्ञान हे मूढ
कि परलोए गुरुदु । वखभायणं 'होहिसि अयाण ।। ९१ ॥ ___अर्थ-(रे जीव के०) हे जीव ! तुं (बुन्झ के०) धर्मने विषे बोध पाम्य. पण (मामुज्झ के०) मोह न पाम्या |
जे कारण माटे (रेपाव के०) हे पाप जीव ! (पमायं के०) प्रमादने (मा करेसि के०) न करीश. (अयाण के०) हे अ-1 | जाण ! एटले हे मृढ ! प्रमाद करीने (परलोए के०) परलोकने विषे (गुरुदुक्खभायणं के०) महोटा दुःखने रहेवाना | भाजनरूप [किं के०] केम होहिसि के०] थाय छे ? ॥ ९१ ॥ । भावार्थ-हे आत्मन् ! तुं अदृष्टना वशथी दुर्लभ एवा मनुष्यभवने पामीने तेमां वली जैनधर्म पामीने धर्मने | विषे प्रमाद न कर्य. तेम छतां जो प्रमाद करीश. तो महादुःखने पामीश. ॥ ९१ ।।
बुद्धस्व रेजीव त्वं मामुह्य जिनमते ज्ञात्वास्वरूपं घुझसु रेजीव तुमं । मामुझसि जिणमयंमि नाणं ॥ यस्मात् पुनरपि एषा सामग्री दुर्लभा हे जीव जम्ही पुर्णरवि एसी । सामैग्गी दुल्लैहा जीवं ॥९२ ॥
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