Book Title: Vairagya Shataka
Author(s): Purvacharya, Gunvinay
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar
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वैराग्य
भाषांतर
IF गंमि के०) भयानक एवी (भवरणे के०) संसाररूप अटवीने विषे (हिडंतो के०) चालतो सतो [नरएसु वि के०]
| नरकने विषे पण, पूर्वोक्त दुःख [अणंतसो के०] अनंतीवार (पत्तोसि के०) पाम्यो छे. ॥ ८४ ॥ शतकम्
| सहित भावार्थ-हे आत्मन् ! तें ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्मे करीने नरकादिक गतिने विषे, अनंतिवार दुःख भोग॥१४७॥
व्यामां खामी राखी नथी. तोपण वली पछां तेनां तेज दुःख प्राप्त थाय, तेवा उपाय करे जाय छे. माटे हवे तेवां ॥१४७॥ | दुःखो भोगवां पडे नहि, तेवो उपाय कर.
सप्तसु नरकमहीषु वज्रानलदाहस्य शीतस्य च वेदनास्तासु सत्तंसु नरयमही वजानलदाहसीयवियणासु ॥ उषितः अनंतकृत्वः विलपन् करुणशब्दैः
वसियो अणंतखुत्तो। विलवंतो करुणसद्देहिं ॥ ४५ ॥ अर्थ-हे जीव ! तुं [वजानलदाह के०] वज्राग्निनो छे दाह ते जेने विषे. एटले अतिशे तीक्ष्ण छे अग्नि ते जेनेर | विषे, अने [सीयवियणासु के०] अतिशे शीतनी छे वेदना ते जेने विषे, एवी [सतसु के०] सात [नरमहीसु के०] |
नरक पृथ्वीओने विषे [करुणसदेहिं के०] करुण शब्दवडे (विलयंतो के०) विलापक रतो सतो [अणंतखुत्तो के०] | अनंतीवार [वसियो के०] वशो छे. ॥ ८ ॥
भावार्थ-हे आत्मन् ! तुं साते नरक पृथ्वीयोमां निवास करी आत्यो छे, अने त्यां यां उष्ण वेदना तथा शीत
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