Book Title: Vairagya Shataka
Author(s): Purvacharya, Gunvinay
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar
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वैराग्य
शतकम्
महिन
उतरीशुं, ने त्यां अमुक भोजन करीशं. एवी रीतनो ठराव करीने पछी पोतानी साथे भातादिक घगी सामग्री लेडने । जाय छे. पण भातुं लीधा सिवाय जतो नधी. तेम तहारे तो अहिंथी मरीने क्या जवु पडशे ? ने त्यां केटला दिवस
भपां t रहेवू पडशे ? अने कोने त्या जइने उतारो करवो पडशे ? अने मार्गमा भातुं लीधा विना शुखाइशुं ? इत्यादि ॥१२३॥ Vil परलोक संबंधी तने कांइ पण विचार थतो नथी ! माटे हे मृढ जीव ! सर्व दुःख मात्रने निवारण करनार अने मनो || ॥१२३।। Ind वांच्छित सुखने आपनार एबुं धर्मरूप भातुं संगाथे राख्य. ॥ ६९ ॥
॥ पद्धरीवृत्तम् ॥ रे जीव नितरांश्रृणु चंचलस्वभावन् मुक्त्वा परलोके यास्यति सकलान् अपि बाह्यभावन तथा रेजीव निसुणि चंचलसहाव । मिल्हेविणु सयलवि बज्झभाव ॥ नवभेदपरिग्रहस्य यत विविधजालंसमुह अतःसंसारे अस्तियत सर्व तत इंद्रजालमिवासदस्ति
नवभेयपरिग्गह विविहजाल । संसारि अस्थि सेहु इंदयाल ॥ ७० ॥ अर्थ-रे जीव के०) हे जीव ! तुं (निसुणि के०) सांभल्य के जे, (चंचल सहाव के०) चंचल स्वभाववाला * (सयलवि के०) सर्व एवाय पण (बज्झभाव के०) शरीरादिक बाह्यभावने तथा (नवभेयपरिग्रह के०) नव भेदवाला
परिग्रहनो (विविहजाल के०) अनेक प्रकारनो समूह तेने (मिल्हेविणु के०) मूकीने परलोके जइश. ए हेतु माटे | (संसारि के०) संसारने विषे (अस्थि के०) जे शरीरादिक देखाय छे, (सहु के०) ते सघलं (इंदयाल के०) इंद्रजाल
توقف فالحه ليك ولحون السوداني في الحالا
___Jain Education intende
.101005
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