Book Title: Uvavaia Suttam
Author(s): Ganesh Lalwani, Rameshmuni
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 8
________________ प्रकाशकीय भगवान महावीर के सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार हेतु सन् १९७७ में 'प्राकृत भारती' की स्थापना हुई थी और उस समय इसका प्रथम पुष्प सचित्र कल्पसूत्र प्रकाशित हुआ था । हमें यह कहते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि १०-११ वर्ष के स्वल्पकाल में ही औपपातिक सूत्र के नाम से प्राकृत भारती का यह ५०वां प्रकाशन पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे है । प्राकृत भारती और उसके प्रकाशनों के प्रति पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वानों / पाठकों के प्रेरणास्पद अभिमत पाकर एवं उदार दानदाताओं / संस्थाओं का सहयोग प्राप्त कर प्राकृत भारती अकादमी विकास की ओर अग्रसर है । औपपातिक सूत्र : बारह अंगों के समान बारह उपांगों की मान्यता का प्राचीन उल्लेख न होने पर भी १२वीं शताब्दी से यह मान्यता स्वीकृत रही है । बारह उपांगों में औपपातिक सूत्र प्रथम उपांग आगम है। नन्दीसूत्र और पाक्षिक सूत्र के अनुसार औपपातिक की गणना अंगबाह्य आवश्यक व्यतिरिक्त उत्कालिक सूत्रों में की गई है । इस आगम का उल्लेख प्राकृत भाषा में 'उववाइय सुत्तं' नाम से हुआ है जिसका संस्कृत रूप 'औपपातिक सूत्र' है । औपपातिक की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव कहते हैं " उपपतनं उपपातः - देव - नारक- जन्मसिद्धिगमनं च, अतस्तमधिकृत्य कृतमध्ययनं औपपातिकम् ” अर्थात् उपपात / जन्म, देव और नारकियों के जन्म तथा सिद्धिगमन का वर्णन होने से इस आगम का नाम औपपातिक है । गद्य-पद्य मिश्रित होने पर भी यह गद्यप्रधान प्राकृत भाषा में है । यह उपांग दो विभागों में विभक्त है । विभाग का नाम समवसरण है और दूसरे का नाम उपपात है । विभाग का वर्ण्य विषय है - प्रथम समवसरण चम्पानगरी में महाराज कूणिक ( अजातशत्रु ) का राज्य था । एकदा श्रमण भगवान् महावीर अपनी विपुल शिष्य-सम्पदा के साथ विहार करते हुए

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