Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Nathuram Premi View full book textPage 7
________________ है कि, हमारे दिगम्बरमन्प्रदायके अनुयायी इस ग्रन्यके पढ़नेसे अरुचि करें और शायद हमपर भी कुछ कुपित हो । परन्तु हमारी छोटीसी समझमें जैनियोंको इतना संकीर्णहृदय नहीं होना चाहिये। उन्हें अपने पूर्व के अनुसार इस मतका अनुयायी होना चाहिये कि, "युक्तिमचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः " अर्थात् इसका विचार किये बिना कि यह किसका कथन है, जिसका वचन युक्तिपूर्ण हो उसीका ग्रहण कर लेना चाहिये । और "गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयंः " अर्थात् गुणवान् पुरुपाम जो गुण होते हैं, वे ही पूजाके वा सत्कारके योग्य होते हैं, उनकता बाहिरी वेप और अवस्था आदि नहीं । क्या हुआ यदि महात्ना सिद्धपि श्वेताम्बर थे तो? यह देखो कि उनका ग्रन्थ तो श्वेत अम्बर धारण नहीं किये हैं, वह तो वीतराग भगवानके प्रतिपादन किये हुए मार्गका बतलानेवाला है ! उससे हमारा कोई उपकार हो सकता है या नहीं ? उसमें हमारे हृदयपर कुछ प्रभाव डालनेकी शक्ति है कि नहीं? यदि ये सत्र गुण उसमें हैं, तो हम क्यों उसका अध्ययन नहीं करें ? आचार्य सिद्धपिने स्वयं इस ग्रन्यक अन्तमें अपनी नम्रता और निरभिमानता प्रगट करते हुए कहा है कि,"हे भन्यो ! मेरी योग्यता अयोग्यताका विचार करके इम ग्रन्यके श्रवण करनेसे अरुचि नहीं करना । मैं चाहे जैसा होऊं, पर इसमे आप लोगोंको रत्नत्रयमार्गकी प्राप्ति अवश्य होगी। कोई आदमी भूखा हो, तो यह नहीं हो सकता कि, उसके परोसे हुए भोजनसे दूसरे पुरुषांकी भी भूख नहीं मिटे ।" आशा है कि, इन बातोंका विचार करके हमारे दिगम्बराम्नायी सज्जन इस ग्रन्थका स्वाध्याय करनेमें किसी प्रकारका मंकोच न करेंगे।Page Navigation
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