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कि 'जो जिनराज की आज्ञा से अन्यथा आचरण करता है वह मिथ्यादृष्टि ही है, कुल से कुछ साध्य नहीं है ।। ७२ ।।
(१०) जो पुरुष जिनसूत्र का उल्लंघन करके आचरण करते हुए भी अपने आपको उत्तम श्रावक मानते हैं वे दरिद्रता से ग्रसे हुए भी अपने को धनवान के समान तोलते हैं । ।७३ ।।
(११) स्वयं को धर्मात्मा कहलवाने के लिए जो जीव अन्य मिथ्यादृष्टियों का कहा हुआ जिनाज्ञा रहित आचरण करते हैं वे पापी ही हैं ।। ७५ ।। (१२) जिनाज्ञा में जो-जो कहा गया है उसको तो मानता है और जिनाज्ञा के सिवाय और को नहीं मानता वह पुरुष तत्त्वज्ञानी है ।।११।।
(१३) जिनाज्ञा से तो धर्म है और आज्ञा रहित जीवों को प्रकट अधर्म है - ऐसा वस्तुस्वरूप जानकर जिनाज्ञा के अनुसार धर्म करो और प्रत्येक धर्मकार्य जिनाज्ञा प्रमाण ही करो। अपनी युक्ति से मानादि कषायों का पोषण करने के लिए जिनाज्ञा के सिवाय प्रवर्तन करना योग्य नहीं है । प्रश्न - जिनाज्ञा को प्रमाण करना किसे कहते हैं ?
उत्तर - कुन्दकुन्द आदि महान आचार्यों ने जो युक्ति और शास्त्र से अविरुद्ध यथार्थ आचरण बताया है उसे अंगीकार करना ही जिनाज्ञा को प्रमाण करना है ।।९२।।
(१४) चक्रवर्ती अथवा अन्य साधारण राजाओं की भी आज्ञा भंग करने पर मरण तक का दुःख होता है तो फिर क्या तीन लोक के प्रभु जो जिनेन्द्र देवाधिदेव उनकी आज्ञा का भंग करने पर दुःख नहीं होगा अर्थात् होगा ही होगा । । ९८ । । (१५) कई जीव जिनाज्ञा प्रमाण पूजादि कार्यों में हिंसा मान उनका उत्थापन करके और ही प्रकार से धर्म तथा जीवदया का प्ररूपण करते हैं उनको कहा है कि 'यदि पूजादि कार्यों में हिंसादि होते तो भगवान उनका उपदेश क्यों देते इसलिए तुम्हारी समझ ही में दोष है। जिनवचन तो सर्वथा दयामय ही हैं और जिनके जिनाज्ञा प्रमाण नहीं है उनके न तो धर्म है और न ही दया है' ।। ९९ ।।
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