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जिन आज्ञा का उल्लंघन
(१) जिन आज्ञा भंग करने में जीव को इतना अधिक पाप होता है कि उससे उसे पुनः जिनभाषित धर्म का पाना अत्यन्त दुर्लभ हो जाता है । । गाथा ११ ।। (२) कोई जिनाज्ञा से पराङ्मुख अज्ञानी जीव चैत्यालय के द्रव्य से व्यापार करते हैं और कोई उधार लेकर आजीविका करते हैं वे महापाप बाँधकर संसार समुद्र में डूब जाते हैं ।। १२ ।।
(३) जिनाज्ञा में परायण पुरुष को निर्ग्रथ गुरु से अथवा उनका संयोग न हो तो श्रद्धानी श्रावक से शास्त्र सुनना चाहिये । ।२३ । ।
(४) जिनराज की शुद्ध आज्ञा में तत्पर पुरुष कितने ही पापी जीवों के सिरशूल हैं । । ३४ ।।
(५) जिनराज की आज्ञा तो यह है कि कुगुरु का सेवन मत करो परन्तु उसको भी त्यागकर कुगुरु को गुरु कहकर नमस्कार करते हैं और अज्ञानी जीव किसी एक कुगुरु को मानते हैं तो उसके अनुसार सब ही मानने लगते हैं सो यह अज्ञान का माहात्म्य है । । ३९ । ।
(६) करने योग्य पूजा आदि धर्मकार्य अपनी इच्छा के अनुसार यद्वा तद्वा न करके जिनेन्द्र की आज्ञा प्रमाण ही यथार्थ करने योग्य हैं क्योंकि यत्नाचार रहित जो कार्य हैं वे आज्ञा भंग करने से दुःखदायक हैं ।। ४५ ।।
(७) जिनराज की आज्ञा रहित और क्रोधादि कषायों सहित धर्म का सेवन करने वालों को न तो यश ही मिलता है और न धर्म ही होता है । । ५५ ।। (८) जो जीव संसार से भयभीत हैं उन्हें तो जिनराज की आज्ञा भंग करने का भय होता है परन्तु जिन्हें संसार का भय नहीं होता उनके जिनाज्ञा भंग करना खेल होता है । । ५९ ।।
(९) जिनराज की आज्ञा की विराधना करके वस्त्रादि परिग्रह धारण करते हुए भी जो स्वयं को गणधर आदि के कुल के कहते हैं उनसे यहाँ कहा है
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