Book Title: Updesh Siddhant Ratanmala
Author(s): Nemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
Publisher: Swadhyaya Premi Sabha Dariyaganj

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Page 12
________________ तो सच्चा होना ही चाहिए तभी जीव का मोक्षमार्ग बनकर उसे वास्तव में मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी अन्यथा तो संसार में भटकना ही होगा। निश्चय - व्यवहार धर्म के विषय में ग्रंथकार कहते हैं कि निश्चय से आत्मा की मोह रहित शुद्ध परिणति रूप जिनधर्म अर्थात् यथार्थ जिनधर्म तो बड़े-बड़े ज्ञानियों के द्वारा भी कष्ट से जाना जाता है, उसका लाभ होना तो दुर्लभ ही है अतः मत की स्थिरता के लिए अरिहंतादि की श्रद्धादि रूप व्यवहार धर्म ही जानना भला है क्योंकि जिनमत की यदि स्थिरता बनी रहेगी तो परम्परा से सच्चा धर्म भी मिल जाएगा और यदि व्यवहार धर्म भी नहीं होगा तो पाप प्रवृत्ति होने से जीव निगोदादि नीच गति में चला जाएगा जहाँ धर्म की वार्ता भी दुर्लभ है अतः परमार्थ जानने की शक्ति न हो तो व्यवहार जानना ही भला है। गाथा १३८ में वे लिखते हैं कि जिनराज ने कहा जो शास्त्र का व्यवहार वह परमार्थ धर्म का साध होता है, परमार्थ के स्वरूप को न्यारा दिखाता है अतः शास्त्र के अभ्यास रूप व्यवहार से परमार्थ रूप वीतराग धर्म की प्राप्ति होती है और जिनराज की आज्ञा के आराधकपने से निर्मल बोध अर्थात् दर्शन - ज्ञान - चारित्र की एकता उत्पन्न होती है। धर्मात्माओं के आश्रयदाताओं की इसमें बहुत प्रशंसा की है कि जिनके आश्रय से शास्त्राभ्यास आदि भले आचरण में तत्पर पुरुष निर्विघ्नता से निर्मल जिनधर्म का सेवन करते हैं वे धन्य एवं अमूल्य उनका मूल्यांकन कल्पवृक्ष या चिन्तामणि रत्न से भी नहीं हो सकता है। उनका नाम लेने मात्र से मोह कर्म लज्जायमान होकर मंद हो जाता है और उनका गुणगान करने से हमारे कर्म गल जाते हैं। जहाँ एक ओर धार्मिक पर्वो के स्थापको की प्रशंसा करते हुए वे उनकी धन्यता का वर्णन करते है कि वे पुरुष जयवंत हों जिन्होंने दसलक्षण एवं अष्टान्हिका आदि धर्म के पर्व स्थापित किये जिनके प्रभाव से पापियों के भी धर्मबुद्धि होती है वहाँ दूसरी ओर हिंसक पर्वों को रचने वालों की उन्होंने निन्दा भी की है कि होली, दशहरा, संक्रांति आदि जिनमें अधिक जलादि की हिंसा हो 12

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