Book Title: Updesh Siddhant Ratanmala
Author(s): Nemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
Publisher: Swadhyaya Premi Sabha Dariyaganj

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ आद्य मिताक्षर 'उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला' १६१ गाथाओं में निबद्ध प्राकृत भाषा का ग्रंथ है जिसमें जीव के मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले उपदेश रूपी रत्नों का संग्रह है। संस्कृत में इसकी कोई टीका उपलब्ध नहीं है। पं० प्रवर टोडरमल जी ने अपने मौलिक ग्रंथ 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के पहले एवं छठे अध्याय में इस ग्रंथ की गाथाओं को दृष्टान्त के रूप में उद्धृत किया है जो इस ग्रंथ की प्रामाणिकता एवं मोक्षमार्ग में उपयोगिता को सिद्ध करता है। लेखक ने इस ग्रंथ की रचना करके जैन समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है। इसमें सामान्य जन के समझने योग्य विषयों को साधारण रूप से बलपूर्वक प्रस्तुत किया गया है जिसमें जिनधर्म की महिमा, कुदेव सेवन एवं कुलाचार को धर्म मानने का निषेध, आगम विरुद्ध कथन करने वाले उत्सूत्रभाषियों को धिक्कारता, योग्य वक्ता की दुर्लभता, मिथ्यात्व की हेयता एवं सम्यक्त्व की महत्ता आदि मुख्य हैं। जीव को यदि वास्तव में धार्मिक होना है तो अपने मैं को मिटाने की चेष्टा करनी चाहिये। नकली झूठा धार्मिक तो उसे कभी भी नहीं बनना चाहिये। नकली धार्मिक का मोक्षमार्ग का पुरुषार्थ सदा के लिए अवरूद्ध हो जाता है क्योंकि अपनी दृष्टि में तो वह धार्मिक ही है। इस ग्रंथ में कुदेवों, मिथ्यावेषधारी कुगुरुओं और नकली धर्मात्माओं से सावधान किया गया है एवं धर्म को आजीविका का साधन व आहार का माध्यम बनाने वाले और जिज्ञासु जीवों को गलत मार्ग दिखलाने वाले अधार्मिकों की भर्त्सना करके अत्यन्त निषेध किया गया है। ग्रंथकार लिखते हैं कि ऐसे कुगुरु भोले जीवों को नरक में खींचकर ले जाते हैं। अविवेकी, ढीठ और दुष्ट कुगुरु की उपासना करना वास्तव में मोह की अचिंत्य महिमा ही है। जीव को जब थोड़ा भी विवेक आता है तो सच्ची समझ जगती है कि एक दिन मृत्यु सब कुछ छीनकर ले जाएगी और तब वह अन्तर्मुख होने का प्रयास करता है पर प्रारम्भ में जब वह बाहर से भीतर की ओर मुड़ता है तो अनजान होता है और उसे जैसा गुरु मिले वह वैसा ही रास्ता अपना लेता है सो गुरु क्योंकि मोक्षमार्ग का आधार है अतः वह 11

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 286