Book Title: Updesh Ratnakar
Author(s): Lalan Niketan
Publisher: Lalan Niketan

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Page 328
________________ ईषद् दृष्ट्वा च तां वक्त्रं । परावर्त्तयति स्म सः स्वरूपं विस्मरंतीव प्राह, वत्स कथं मुखं ॥ १० ॥ व्यावर्त्तयो नवन्मंत्र-जापात् तुष्टाहमागता ॥ वरं वृशिवति तत्प्रोक्तो। बप्पत्नहिरुवाच च ॥ १०१ ॥ मातर्विसदृशं रूपं । कथं वीकेवे तहशं ॥ स्वं तत्त्वं पश्य निर्वस्त्र-मित्युक्ते स्वं ददर्श सा ॥ १२ ॥ अहो निबिममेतस्य ब्रह्मत्रतमिति विचिंत्य मंत्रमाहात्म्यागिदितवेद्यांताराऽत्रागताहामत्याह च, वरदानेऽपि निःस्पृहत्वात्त्वयि तुष्टा, तवेच्छयागन्निष्यामीति वरं दत्वा तिरोऽधात् ॥ १०३ ॥ अन्यदा वर्षति मेघे देवकुत्रस्थस्य बप्पत्नट्टेः कोऽपि देवोपमः पुमान् समगस्त, प्रशस्तिपटिकायां च काव्यान्यवाचयत् ॥ १० ॥ तेणीने जरा जोड्ने बप्पन ट्टिजीए पोतानुं मुख फेरवी नाख्युं ते वखते जाणे ते पोताना स्वरूपने नूनी जती होय नहीं, तेम तेने कहेवा लागी के, हे वत्स! ॥१०० ।। तें मुख शामाटे फेरव्युं ? तारा मंत्रना जापयी हुं तुष्टमान थइने आवी बु, माटे तुं वर माग? एवी रीते तेणीए कहेवायी बप्पन ट्टिजी बोध्या के ॥१०१ ।। हे माताजी ! हुं आपनुं आई विसदृश रूप केम जोडं बुं? आप पोतानुं नग्न रूप जुओ. एम तेणे कहेवायी ते सरस्वती देवी पोताने वस्त्र रहित जोवा लागी ॥१०॥ अहो! आनुं ब्रह्मचर्य व्रत दृढ बे, एम विचारि तेणीए कयु के, तमारा मंत्रना माहात्म्पयी बीजं सघळु नान नूनी जाने हुं अहीं आवी बुं; तथा वरदानमां पण तमोने निस्पृही जाणीने हुँ तमारापर तुष्टमान था बु; हवे तमो ज्यारे इच्छा करशो त्यारे हुं हाजर थश, एम वरदान आपीने ते अलोप था गइ ॥ १०३ ॥ एक वखते वरसाद वरसते छते बप्पनटिसूरि | देवमंदिरमा हता, ते वखते कोक देव सरखो पुरुष त्यां आव्यो, तया त्यां रहेला शिलालेखमांयी प्रशस्तिना काव्यो वांचवा लाग्यो ॥१०॥ श्री उपदेशरत्नाकर

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