Book Title: Updesh Ratnakar
Author(s): Lalan Niketan
Publisher: Lalan Niketan

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Page 349
________________ ॥१७॥ एकं ध्याननिमीलनान्मुकुलितं चकुतिीयं पुनः । पार्वत्या विपुढे नितंबफलके शगारभारालये ॥ अन्यद् दूरविकृष्टचापमदनक्रोधानवोद्दीपितं । शंभोलिन्नरसं समाधिसमये नेत्रत्रयं पातु वः ॥ १७ ॥ रामो नाम बनूव हुं तदबला सीतेति हुं तौपितु-र्वाचा पंचवटीवने विहरतस्तां चाहरजावणः ॥ निजार्थं जननीकथामिति हरेहुंकारिणः शृण्वतः । पूर्वस्मर्तुरवंतु कोपकुटिलत्रूभंगुरा दृष्टयः ॥ १ए३ ॥ दर्पणार्पितमालोक्य । मायास्त्रीरूपमात्मनः ॥ आत्मन्येवानुरक्तो यः । श्रियं दिशतु केशवः ॥१४॥ श्री उपदेशारत्नाकर. ध्याननी अंदर जोमवायी एक चक्कुतो जेमनुं वींचायेर्बु , तया बोजु शृंगारना समूहना स्थान रूप एवाला पार्वतीना विस्तीर्ण नितंबतटपर स्थिर थयेबु बे, अने त्रीजुतो धनुष्य चमावीने रहेला एवा कामदेवपर क्रोध रूपी अग्निथी जाज्वल्यमान यये डे, एवी रीते समाधि वखते जिन्न भिन्न रसोवाळां एवां शंकरना त्रणे नेत्रो तमारुं रक्षण | Me करो ॥ १५ ॥ एक राम नामे राजा हतो, तेने सीता नामे स्त्री हती, तेओ बन्ने पिताना वचनयी पंचवटीना व नमा विचरता हता, त्यां तेणीने रावणे हर सीधी, एवी रीते निद्रामाटे मातानी कथाने हुंकारो देख्ने सांनळ ता अने तेथी पूर्वावस्थानुं स्मरण करनारा एवा हरिना क्रोधयी कुटिल तथा नृकुटीथी जंगुर ययेसी दृष्टिो रकण | a करो ॥ १३ ॥ दर्पणमा रहेलां एवां पोतानां मायावी स्त्रीरूपने जोइने जे पोतामांज अनुरक्त थया बे, ते केशव का लक्ष्मी आपो ॥ १४ ॥ ससससस

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