Book Title: Updesh Ratnakar
Author(s): Lalan Niketan
Publisher: Lalan Niketan
________________
॥ १७८ ॥
0000000
वाक्पतिः - सजिनः क्वास्ते ? सूरयः स्वरूपतो मुक्तौ, मूर्त्तितस्तु जिनायतने ॥ २०० ॥ ततः श्रीमनृपका रिते प्रासादे श्रीजिनमूर्त्तिं दर्शयित्वा तं प्रतिबोध्य जैनधर्मं प्रतिपाद्य कियदुभिर्दिनैः कन्यकुब्जं प्राप्ताः ॥ २०१ ॥ चरैः प्रागपि ज्ञातवृत्तांतो राजा तत्संमुखं गत्वा समहं तान् प्रावेशयत् ॥ २०२॥ राजाद जगवन्नद्द्भुतं किमपि, प्रनूणां वचः सामर्थ्यं । सोऽपि यत् प्रतिबोधितः ॥ प्रभुः प्राहाथ का शक्ति - म यत्त्वं न बुध्यसे ॥ २०३ ॥ राजाह सम्यग् बुद्धोऽस्मि । वर्मोऽस्तीति निश्चितं ॥ माहेश्वरं पुमर्धर्मं । मुंचतो मे महाव्यथा ॥ २०४ ॥
ते सांजळी वाक्पतिए कर्तुं के, एवा जिन क्यां बे ? त्यारे आचार्यजीए क क, स्वरूपथी तो तेप्रो मुक्तिमां बे, अने मूर्त्तियी जिनालयमां बिराजे बे || २०० || पत्री श्री ग्राम राजाए करावेलां मंदिरमां रहेली 'जिनमू| र्त्तितेने देखामीने, तथा प्रतिबोध पूर्वक तेने जिन धर्म अंगीकार करावीने केटलेक दिवसे आचार्यजी महाराज कन्यकुब्जमां पधार्या ॥ १०१ ॥ दूतो मारफते प्रथमयीज ते वृत्तांत राजाए जाऐलो होवाथी, तेमनी सन्मुख जइ महोत्सव पूर्वक तेमनो तेणे प्रवेश कराव्यो ॥ २०२ ॥ पछी राजाए कछु के, ह जगवन्! आपना वचनोनुं सामर्थ्य तो कंक नुतन बे, केमके ते वाक्पति जेवाने पण प्रतिबोध्यो; त्यारे आचार्यजी महाराजे कां के, ज्यांसुधि तमो प्रतिबोध पामता नयी, त्यांसुधि मारी शक्ति शा कामनी बे ॥ २०३ ॥ त्यारे राजाए कहुँ के, आपनो धर्म उत्तम बे, एम हवे हुं सारी रीते जाएंं, परंतु शिवधर्मने बोकतां मने महादुःख थाय बे ॥ २०४ ॥
0000000000000000
0000000000000
श्री उपदेशरत्नाकर.
Page Navigation
1 ... 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406