Book Title: Updesh Ratnakar
Author(s): Lalan Niketan
Publisher: Lalan Niketan
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बंधुत्ति, यथा बंधुः सदापि सस्नेहहृदय एव, निजबंधुं शिकयति हितादि यथावसरं, परं तथा विनयोपचारादिकर्मखनादरः ॥ २५॥ नापि तदपेची परस्मादपि, विशिष्य परानवे संकटादौ च नवत्येव तस्य सहायः ॥ २६ ॥ तथा केचिद्गुरव : श्रधाबुषु जनेष्वकृत्रिमाऽतुबवात्सल्यभृतः सदाप्युपदिशति परमार्थहितं धर्म, न पुनस्तहिषयगुणसंस्तवावर्जनादिविशेषोपचारक्रियासु तथादरनाजः ॥ २७ ॥ नापि तेन्यस्तादृग् बाहीकोपचाराद्याकांक्षिणो, विशिष्य परंपरानवे रोगातंकादौ संकटेष्वैहिकेऽपि धर्मस्थिरीकरणाद्यर्थं ॥२॥
भी उपदेशरत्नाकर
हवे जैन बंधु हमेशां स्नेहयुक्त ह्रदयवाळोज होय जे, तथा पोताना बंधुने योग्य अवसरे हितशिखामण आदिक पण आप बे, परंतु तेवी रीतना विनय उपचार आदिकना कार्यामां आदरवाळो न होय ॥२२५ ॥ तेमज सामो तेनी पासेयी तेनी अपेक्षा राखतो नयी, परंतु तेथी आगळ वधीने, बंधुने परानव तथा संकट
आदिक आदिकमां ते मदद करे छे ॥ २६ ॥ एवी रीते केटवाक गुरुओ श्रधालु बोको प्रत्ये खरा दिलथी | अत्यंत वत्सन्नतावाळा थया थका हमेशा परमार्यवाळो हितकारी धर्म उपदेशे बे, परंतु तेओना गुणोनी प्रशंसा करवामां, के तेओने खुशी करवा माटे बीजा उपाय आदिकोमां एवा आदरवाळा होता नथी ॥१७ ॥ तेम तेश्रो तरफथी बाह्य उपचार आदिकनी आशा राखता नथी; पण तेयी आगळ वधीने उलटा परानव समये, तेमज रोग, आदिक प्रा लोक संबंधि संकट वखते पण तेश्रोने धर्ममां स्थिर करवा आदिक माटे ॥श्न।
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