Book Title: Updesh Ratnakar
Author(s): Lalan Niketan
Publisher: Lalan Niketan

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Page 342
________________ ॥१७॥ श्रीआमनृपेण सह गोपालगिरिमापत्; तत्र कदाचित् शास्त्रगोष्ट्या कदाचिधर्मगोष्ट्या समयो याति ॥ १६५ ॥ श्रीबप्पत्नट्टिः साम्ना श्रीआमनृपप्रतिबोधाय बहूनुपायानकरोत् परं स नाऽबुध्यत धर्म ॥ १६६ ॥ अन्यदा तत्र गायनवृंद सुस्वरमाययो, तत्रैका मातंगी राजानं रूपेण स्वरेण च रंजयामास १६७ ॥ राजा तपमोहितो बहिरावासमचीकरत, उवाच च-वक्त्रं पूर्णशशी सुधाधरलता दंता मणिश्रेणयः । कांतिः श्चीमनं गजः परिमलस्ते पारिजातमाः॥ वाणी कामधा कटाइलहरी सा कालकूटच्छटा । तत् किं चंडमुखि त्वदर्थममरैरामंथि पुग्धोदधिः ॥ १६८ ॥ त्यारवाद ते श्रीश्रामराजानी साये गोपालगिरि प्रत्ये आव्या , तथा त्यां कोई वखते शास्त्रवार्ताथी तथा कोइ वखते धर्मवार्ताथी तेश्रोनो समय जवा लाग्यो । १६५ ॥ पछी श्रीवप्पनटिजोए सामनेदे करीने श्री आमराजाने प्रतिबोधवा माटे घणा उपायो कर्या, परंतु तेने धर्मनो प्रतिबोध लाग्यो नहीं ॥१६६ ॥ एक वखते त्यां उत्तम गायनो करनाक गानाराोने टोटुं आव्युं, तेमांनी एक मुंबमीए राजाने रूप तया स्वरयी खुश करी ॥ १६७ ।। तेणीना रूपथी मोहित थयेला राजाए वहार एक मेहेत्र बंधाव्यो, तया कहेवा लाग्यो के -हे चंद्रमुखी : तारूं मुख पूर्णिमाना चंद्र सरखं छे, अोष्ठनता अमृत सरखी , दांतो मणिोनी श्रेणिओ सरखा , कांति सहमी सरखी, गमन हायी सर ने, मुगंधि कल्पत सरखी छे; वाणी कामधेनु सरख। छ, कटाक्षानी श्रेणि कालकूटनी (विषनी) बटा सरखी , माटे शं तारे माटेज देवोए वीरसमुद्रने मंथेसो ? ॥१६७ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ श्री उपदेशरत्नाकर. 800 ܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀

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