Book Title: Updesh Ratnakar
Author(s): Lalan Niketan
Publisher: Lalan Niketan

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Page 332
________________ ॥१६॥ वारिदो वर्षणकेशं । क्षितिर्विश्वासुमतक्लमं ॥ उपकारादृतेऽमीषां । न फलं किंचिदीयते ॥ ११ ॥ इति तदगिरा श्रीसंघकृतोत्सवैस्तं गुरुराचार्यपदेऽस्थापयतः एकादशाधिके तत्र । जाते वर्षशताष्टके ॥ विक्रमात्सोऽनवत्सूरिः । कृष्णचैत्राष्टमीदिने ॥ १२ ॥ अथानुशिष्टो गुरुणा । विधिवद् ब्रह्मरक्षणे ॥ तारुण्यं राजपूजा च । वत्सानर्थघ्यं ह्यदः ॥ १३ ॥ तच्छुवा श्रीबप्पनटिसूर्यिदकरोत् तान् श्लोकेनाह; नक्तं नक्तस्य लोकस्य । विकृतीश्चाखिसा अपि ॥ आजन्म नैव नोदयेऽह-ममुं नियममग्रहीत् ॥ १३ ॥ श्री उपदेशारत्नाकर वरसाद जे वरसवानो क्लेश सहन करे , तथा पृथ्वी जे सघळां पाणीोना (नारनो) क्लेश सहे छे, तेश्रो सघळामां उपकारविना बीजं कंद पण फल देखातुं नथी ॥ ११ ॥ तेओना एवी रीतनां वचनथी श्री संधे करेला नत्सव पूर्वक गुरु महाराजे श्रीबप्पनट्टीजीने आचार्यपदपर स्थाप्या; विक्रमथी पाउसो अग्यार वर्षों जाते बते चैत्रवदी पाउमने दिवसे ते आचार्य थया ।। १२॥ पठी गुरु महाराजे तेमने शिखामण आपी के, विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रतनी रक्षा करवी; वळी हे वत्स! तरुणता तथा राजमान्यपणं ए बन्ने अनयोनां मूळ रे ॥ १३ ॥ ते सांजळी श्रीवप्पनट्टिजीए जे कर कयु, ते श्लोकथी कहे जे; जक्त लोकोनो आहार पाणी, तथा सबळी विगयो बेक जन्मपर्यंत हुँ खाइश नहीं, एवं तेमणे नियम ग्रहण कर्यु ॥ १२४॥

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