Book Title: Updesh Ratnakar
Author(s): Lalan Niketan
Publisher: Lalan Niketan

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Page 331
________________ चमत्कृतो राजा, प्रवेशानंतरं सौधांतः क्षमानुजा सिंहासनं मंमितं, तदवसरे बप्पन्नद्विराह, अस्माकं सूरिपदे जाते सिंहासनमासनं कम्प्यं ॥ ११६ ॥ ततो राजा खिन्न आसनांतरममंमयत्, दिनानि कियंति तत्र तमवस्थाप्याचार्यपदार्थी राजा प्रधानैः सह गुरुपाचे प्रेषीत् ॥ ११७ ॥ प्रधाना गुरुं विज्ञपयंति, चं विना चकोर श्व बप्पनटिं बिनाऽस्मत्स्वामी रतिं न बनते ॥ ११ ॥ अतोऽस्याचार्यपदं दत्वा पश्चादिमं प्रेषयंतु, यथास्योपदेशाजाजा धर्मोन्नतिं कुरुते ॥ ११॥ ॥ गुरुः प्राह नोनो एतस्य शिष्यस्यासत्तिविनाऽस्माकमपि न रतिः, ते प्राहुः-तरवस्तरणेस्तापं । स चात्रोलंघनक्रमं ॥ पाथोधिौश्रमं सोढा । वोढा कूर्मः क्षितेनरं ॥ १० ॥ पठी प्रवेश कराव्या बाद मेहेली अंदर राजाए सिंहासन ममाव्यु; त्यारे बप्पट्टिजीए कयु के, ज्यारे || अमोने सूरिपद मळे, त्यारे अमोने सिंहासननुं आसन कटपे ॥ ११६ ॥ पठी राजाए खेद पामीने बीजं आसन || ममाव्यु, पनी केटशाक दिवसो सुधि तेमने त्यां राखीने, तेमना आचार्यपदना अर्थी एवा राजाए प्रधानो सहित तेमने गुरु पासे मोकळ्या ॥ ११७ ॥ प्रधानोए त्यां जय तेमना गुरुने विनंति करी के, चंद्रविना जेम चकोर, तेम 21 वपट्टिजी विना अमारा स्वामीने चेन पतुं नथी ॥११॥ माटे तेमने आचार्यपद आपीने पाग मोकलावो || के जेथी तेमना उपदेशथी राजा धर्मोन्नति करे ॥ ११॥ ॥ त्यारे गुरुए कयु के, हे प्रधानो! आ शिष्यनी हाजरी विना अमोने पण चेन पतुं नथी; त्यारे प्रधानोए का के, को जे सूर्यनो ताप सहन करे छे, अने ते मूर्य || 18 पण जे आकाशने उलंघवानो क्लेश सहन करे , समग जे वहाणोनो थाक खमे जे, तथा काचवो जे पृथ्वीनो | नार वहे , ॥ १०॥ श्रा उपदशरत्नाकर

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