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पदार्थ की द्विरूपता : भारमुक्त या भारयुक्त
जैनदर्शन के पदार्थ जगत् में षड्द्रव्य का सिद्धांत मान्य है। उनमें धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और काल ये पांच पदार्थ तो सर्वथा भारमुक्त हैं। उन्हें अगुरुलघु कहा गया है। अगुरुलघु भारहीन ही होते हैं। पुद्गलास्तिकाय गुरुलघु (भारयुक्त) एवं अगुरुलघु (भारमुक्त) दोनों ही प्रकार का होता है।49 भार का सम्बन्ध स्पर्श से है। वह पुद्गल द्रव्य का एक गुण है। परमाणु से लेकर चतुःस्पर्शी स्कन्ध तक के पुद्गल अगुरुलघु होते हैं। कार्मण वर्गणा चतुःस्पर्शी है, अतः कर्म को अगुरुलघु कहा है। पांच शरीर में कार्मण शरीर को अगुरुलघु एवं शेष चार शरीर को गुरुलघु कहा है। कार्मण शरीर को छोड़कर शेष चार शरीर अष्टस्पर्शी पुद्गल स्कन्धों से निर्मित है। मनयोग, वचनयोग को अगुरुलघु एवं काययोग को गुरुलघु कहा गया है। यहां पर प्रश्न उपस्थित होता है कि काययोग को एकान्त गुरुलघु क्यों कहा गया? क्योंकि कार्मण शरीर तो चतुःस्पर्शी है। उसका योग भी चतु:स्पर्शी होना चाहिए। यहां यह सम्भावना भी नहीं की जा सकती कि कार्मण शरीर तो चतु:स्पर्शी है किन्तु योग अष्टस्पर्शी हो जाता है, क्योंकि मनोयोग, वचनयोग को अगुरुलघु कहा है। संभव ऐसा लगता है कि यह वक्तव्य कार्मण शरीर से इतर शरीरों के लिए है, क्योंकि कार्मण योग तो मात्र अन्तराल गति एवं केवली समुद्घात के समय में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं है। चार शरीरों का ही काययोग मुख्य है, अत: बहुलता की दृष्टि से काययोग को गुरुलघु कह दिया गया है। यह भी सापेक्ष वचन ही है। पुद्गल का परिणमन
जैन दर्शन के अनुसार पुद्गल रूपी है। रूपी उसे कहते हैं जिसमें वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श होते हैं। पांच अस्तिकायों में मात्र पुद्गल ही मूर्त है। पुद्गल का परिणमन अनेक प्रकार का होता है। भगवती में पुद्गल के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श संस्थान --- इन पांच प्रकार के परिणमनों का उल्लेख प्राप्त है ।55 स्थानांग में चतुर्विध पुद्गल-परिणमन का उल्लेख है। वहां पर संस्थान का उल्लेख नहीं किया गया है। इसका अर्थ हुआ वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श पुद्गल मात्र का असाधारण धर्म है । ये चारों गुण परमाणु तथा स्कन्ध दोनों में ही रहेंगे। यद्यपि संस्थान पुद्गल का ही होता है किंतु यह संस्थान रूप परिणमन स्कन्ध में ही हो सकता है, परमाणु में नहीं। अतः संस्थान रूप परिणमन की पुद्गल में सर्वव्यापकता नहीं है, इसलिए ही उत्तरवर्ती आचार्यों ने पुद्गल के लक्षण विमर्श में दो सूत्रों का प्रणयन किया है। स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गला:' शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्त:58 इसका अर्थ हुआ शब्द आदि पुद्गल के ही धर्म हैं किन्तु ये अणु में नहीं रह सकते । स्कन्धरूप पुद्गल में ही रहेंगे। परमाणु एवं स्कन्ध में स्पर्श आदि गुण एक समान नहीं होते। इसका विमर्श भी भगवती में पर्याप्त रूप से हुआ है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 119
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