Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 42
________________ उत्पत्ति में ये पांच कारण नियम से होते हैं। स्वभाव से द्रव्य की स्वशक्ति या नित्य उपादान लिया गया है। पुरुषार्थ से जीव का बल वीर्य लिया गया है। काल से स्वकाल और परकाल का ग्रहण किया गया है, नियति से समर्थ उपादान या निश्चय की मुख्यता दिखलाई गई है और कर्म से बाह्य निमित्त का ग्रहण किया गया है। अष्ट सहस्त्री, (पृ. 257) में भट्टाकलंकदेव ने एक श्लोक लिखा है - तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः। सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता॥ जिस जीव की जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है। वह प्रयत्न भी उसी प्रकार का करने लगता है और उसे सहायक भी उसी के अनुसार मिल जाते हैं। ___ भवितव्यता क्या है ? जीव की समर्थ उपादान शक्ति नाम ही तो भवितव्यता है। भवितव्यता की व्युत्पत्ति है- भवितुम योग्यं भवितव्यम, तस्य भावः भवितव्यता। जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं और उसका भाव भवितव्यता कहलाती है। जिसे हम योग्यता कहते हैं उसी का नाम भवितव्यता है। द्रव्य की समर्थ उपादान शक्ति कार्य रूप से परिणत होने के योग्य होती है इसलिए समर्थ उपादान शक्ति भवितव्यता या योग्यता शब्द द्वारा अभिहित किया गया है सो प्रकरण के अनुसार उक्त अर्थ करने में भी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि भवितव्यता से उक्त दोनों अर्थ सूचित होते हैं। उक्त श्लोक में भवितव्यता को प्रमुखता दी गयी है और साथ में व्यवसाय पुरुषार्थ तथा अन्य सहायक सामग्री का भी सूचन किया गया है सो इस कथन द्वारा उक्त पांचों कारणों का समवाय होने पर कार्य की सिद्धि होती है, यही सूचित होता है, क्योंकि स्वकाल उपादान की विशेषता होने से भवितव्यता में गर्भित हैं ही। यहाँ भवितव्यता के प्रसंग में पुरुषार्थ का भी विचार कर लेना चाहिए। कार्योत्पत्ति में भवितव्यता अन्तरंग (उपादान) कारण है और पुरुषार्थ बहिरंग (निमित्त) कारण है। किसी भी कार्य की उत्पत्ति दोनों कारणों से होती है। अनेकान्तवादी जैनदर्शन में दैव और पुरुषार्थ दोनों का समन्वय किया गया है। दैव और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में आप्तमीमांसा में लिखा है ___ अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः। बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात्॥26 जो इष्ट या अनिष्ट कार्य अबुद्धिपूर्वक घटित हो जाता है उसे अपने दैवकृत समझना चाहिए। यहाँ पौरुष गौण है और देव प्रधान है और जो इष्ट या अनिष्ट कार्य बुद्धिपूर्वक घटित होता है उसे अपने पौरुषकृत समझना चाहिए। यहाँ दैव गौण है और पौरुष प्रधान है। इस विषय में आचार्य अकलंकदेव ने 'अष्ट शती' में लिखा है-योग्यता कर्मं पूर्वं वा दैवमुभयदृष्टम्। पौरुषं पुनरिहचेष्टितं दृष्टम्।ताभ्यामर्थ सिद्धिः। तदन्यतरापायेऽघटनात। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122