Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 43
________________ अर्थात् योग्यता अथवा पूर्व कर्म दैव कहलाते हैं। ये दोनों अदृष्ट हैं तथा इस जन्म में किये गये पुरुष व्यापार को पौरुष कहते हैं । यह दृष्ट होता है। इन दोनों से अर्थ की सिद्धि होती है और इन दोनों में से निजी एक के अभाव में अर्थ की सिद्धि नहीं होती है। आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि काल, स्वभाव, नियति, पुराकृत (हमारा किया हुआ) और पुरुषार्थ- ये पांच तत्त्व हैं । इन्हें समवाय कहा जाता है। ये पांचों सापेक्ष हैं । यदि किसी एक को प्रधानता देंगे तो समस्याएँ खड़ी हो जायेंगी। काल प्रकृति का एक तत्त्व है। प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव अपना-अपना होता है। नियति सार्वभौम नियम है, जागतिक नियम है। यह सब पर समान रूप से लागू होता है। व्यक्ति स्वयं कुछ करता है। मनसा, वाचा, कर्मणा, जाने-अनजाने, स्थूल या सूक्ष्म प्रवृत्ति के द्वारा जो किया जाता है, वह सारा का सारा अंकित होता है। जो पुराकृत किया गया है, उसका अंकन और प्रतिबिम्ब होता है। प्रत्येक क्रिया अंकित होती है और उसकी प्रतिक्रिया भी होती है। क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धान्त कर्म की क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धान्त है। करो, उसकी प्रतिक्रिया होगी। गहरे कुँए में बोलेंगे तो उसकी प्रतिध्वनि अवश्य होगी। ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है। बिम्ब का प्रतिबिम्ब होता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। यह सिद्धान्त है दुनिया का। प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति का परिणाम होता है और उसकी प्रवृत्ति होती है। कर्म अपना किया हुआ होता है। कर्म का कर्ता स्वयं व्यक्ति है और परिणाम उसकी कृति है। यह प्रतिक्रिया के रूप में सामने आती है। इसलिए इसे कहा जाता है -पुराकृत। इसका अर्थ है पहले किया हुआ। पाँचवा तत्त्व हैपुरुषार्थ । कर्म और पुरुषार्थ दो नहीं, एक ही हैं। एक ही तत्त्व के दो भाग हैं। इनमें अन्तर इतना है कि वर्तमान का पुरुषार्थ पुरुषार्थ' कहलाता है और अतीत का पुरुषार्थ कर्म कहलाता है। कर्म पुरुषार्थ के द्वारा ही किया जाता है, कर्तृत्व के द्वारा ही किया जाता है। आदमी पुरुषार्थ करता है। पुरुषार्थ करने का प्रथम क्षण पुरुषार्थ कहलाता है और उस क्षण के बीत जाने पर वही पुरुषार्थ कर्म नाम से अभिहित होता है। ये पाँच तत्त्व हैं, पाँचों सापेक्ष हैं। सर्वशक्तिमान एक भी नहीं। सबकी शक्तियां सीमित हैं, सापेक्ष हैं। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि हम स्वतंत्र भी हैं और परतंत्र भी हैं।” 7. कथंचित् कर्म का कार्य निमित्त जुटाना “है" कथंचित् “नहीं है" ____ हमारे कर्मों का बाहरी सामग्री तथा दूसरे प्राणी पर असर पड़ता भी है और नहीं भी, ऐसा अनेकान्त है एकान्तत: नियम नहीं है। हमारा कर्मोदय निमित्त मात्र होता है, जैसे पण्डित दौलतराम ने कहा है - "भवि भागन वच जोगे वशाय, तुम धुनि है सुनि विभ्रम नशाय"। यहाँ भव्य जीवों का भाग्य ध्वनि के खिरने में निमित्त हुआ और वचन योग से निकली वचन-वर्गणाएँ भव्य जीवों के भ्रम दूर करने में कारण हुई। चक्रवर्ती गणधरादि की शंका के निमित्त से भी भगवान् की वाणी खिर जाती है। इस प्रकार अनेक निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हैं । मनुष्य स्वयं खोटा या अच्छा अपने कर्मोदय या विचारों से होता है किन्तु उसकी 38 । - तुलसी प्रज्ञा अंक 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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