Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 77
________________ ध्यान के अधिकारी छ: प्रकार के संहननों (शारीरिक संघटनों) में वज्रऋषभनाराच, अर्धवज्रऋषभनाराच और नाराच - तीन प्रकार के संहनन वाले को उत्तम माना जाता है और संहनन वाला ही ध्यान का अधिकारी होता है । यहाँ उत्तम संहनन वाला ही ध्यान का अधिकारी होगा, ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि ध्यान के लिए ध्यानी में जितनी शारीरिक और मानसिक बल की आवश्यकता है वह उत्तम संहनन वाले में ही संभव है । यद्यपि ध्यान में मन की शुद्धता, स्वस्थता और एकाग्रता आवश्यक है, परन्तु गौण रूप से हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि मन शरीर से सम्बद्ध है, इसलिए शरीर का स्वस्थ होना भी आवश्यक है । उत्तम संहनन वाले के अतिरिक्त दूसरा कोई ध्यान का अधिकारी नहीं हो सकता, क्योंकि अनुत्तम संहनन वाले में शारीरिक बल के साथ मानसिक बल भी कम होता है। चूँकि मानसिक बल कम होने से चित्त स्थिर नहीं हो पायेगा, फलतः ध्यान लगना सम्भव नहीं है । इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तम संहनन वाला ही ध्यान का अधिकारी है । उपर्युक्त ध्यान असर्वज्ञ में ही सम्भव है । इसलिए ऐसा ध्यान बारहवें गुणस्थान तक होता है । यद्यपि सर्वज्ञत्व प्राप्त होने के बाद अर्थात् तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में भी ध्यान स्वीकार्य तो है परन्तु उसका स्वरूप भिन्न है। पं. सुखलाल सिंघवी का मत है कि सर्वज्ञ दशा में मन व मन और काय के व्यापार सम्बन्धी सुदृढ़ प्रयत्न को ही ध्यान के रूप में स्वीकार किया जाता है। ध्यान का काल परिणाम ध्यान क्षण स्थायी है अथवा इसका विस्तार दूसरे, तीसरे क्षण में भी हो सकता है। इस सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों ने सूक्ष्म विवेचन किया है। ध्यान के काल परिमाण के विषय में उमास्वाति की विचारणा है - " आमुहूर्त्तात् ध्यानम् " ३ अर्थात् ध्यान अन्तर्मुहूर्त मात्र परिणाम वाला है। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए पं. सुखलाल सिंघवी कहते हैं कि कुछ लोग श्वासोच्छवास रोक रखने को ध्यान मानते हैं, तो कुछ लोग मात्रा से काल की गणना करने को ध्यान मानते हैं । जैन परम्परा में ध्यान की उक्त दोनों ही पद्धतियाँ स्वीकार्य नहीं हैं, क्योंकि सम्पूर्णतया श्वासोच्छवास की क्रिया रोक दी जाये तो शरीर ही नहीं टिकेगा । अतः शरीर को जीवित रखने के लिए मन्द या मन्दतम श्वास - संचार ध्यान में भी आवश्यक है। इसी प्रकार जब कोई मात्रा से काल की गणना करेगा तब एक साथ अनेक क्रियाएँ करने में लग जाने से उसके मन को एकाग्र के स्थान पर व्यग्र ही मानना पड़ेगा। वस्तुतः यही कारण है कि दिवस, मास या उससे अधिक काल तक ध्यान के टिकने की लोक मान्यता भी जैन परम्परा को ग्राह्य नहीं है। इसका कारण यह माना जाता है कि लम्बे समय तक ध्यान साधने से इन्द्रियों का उपघात सम्भव है। अतः ध्यान को अन्तर्मुहूर्त्त से अधिक बढ़ाना कठिन है। जो लोग ऐसा कहते हैं कि मैंने एक दिवस, एक अहोरात्र अथवा उससे भी अधिक ध्यान किया, उनका अभिप्राय यह है कि उतने समय तक ध्यान का प्रवाह चलता रहा । तुलसी प्रज्ञा अंक 119 72 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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