Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 79
________________ (ग) विपाक विचय धर्मध्यान-कर्म विपाक (फल) रूप परिणाम वाला है, ऐसा विश्वास ही कर्म प्रवृत्ति का हेतु है। अतः विपाकविचय धर्मध्यान में अमुक कर्म का अमुक विपाक होगा, इसकी विचारणा की जाती है। (घ) संस्थानविचय धर्मध्यान-संस्थान का अभिप्राय लोक से है। अतः लोक स्वरूप का चिन्तन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। शुक्लध्यान- "पृथक्त्वैकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरत क्रियानिवृत्ततानि"।11 यहाँ पर शुक्ल ध्यान के भेदों का वर्णन हुआ है, जिसके पर्यायलोचन से शुक्ल ध्यान का स्वरूप निर्धारित होगा। अत: हम शुक्ल ध्यान के भेदों पर विचार करते हैं - ___ 1. पृथकत्ववितर्कसविचार:- इसमें वितर्क (श्रुतज्ञान) का अवलम्बन लेकर किसी एक द्रव्य में उसके पर्यायों के पृथकत्व (भेद) का विभिन्न दृष्टि से चिन्तन करना पृथकत्ववितर्कसविचार नाम वाला शुक्लध्यान है। 2. एकत्ववितर्कनिर्विचार:- इसमें वितर्क का अवलम्बन होने पर भी एकत्व का चिन्तन प्रधान रहता है, साथ ही इसमें शब्द, अर्थ अथवा योगों का परिवर्तन नहीं होता। 3. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति:- सर्वज्ञ पुरुष के द्वारा सूक्ष्म शरीर योग का आश्रय लेकर शेष योगों को प्रतिबन्धित कर देना अथवा रोक देना सूक्ष्म क्रिया-प्रतिक्रिया शुक्लध्यान है। इसमें श्वासोच्छवास के समान सूक्ष्म क्रियाएँ ही शेष रहती हैं, जिसका पतन सम्भव नहीं है। 4. सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति ध्यान:- इसमें दो महत्त्वपूर्ण बातें होती हैं। प्रथम यह कि इसमें श्वासोच्छवास रूप सूक्ष्म क्रियाओं का ही अभाव हो जाता है, जिसके कारण आत्मप्रदेश सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाता है। दूसरा तथ्य यह है कि इसमें किसी भी प्रकार के श्रुतज्ञान आलम्बन नहीं होता है। अतः इसे अनालम्बन ध्यान भी कहा जाता है। __ शुक्लध्यान का अधिकारी गुणस्थान की दृष्टि से अथवा योग की दृष्टि से दो प्रकार का माना गया है। गुणस्थान की दृष्टि से शुक्लध्यान का प्रथम ध्यान ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान वाले पूर्वधर के लिए है। शेष दो ध्यान तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान वाले केवली के लिए हैं। इसी तरह योग की दृष्टि से तीन योग वाला प्रथम शुक्लध्यान का और एक योग वाला द्वितीय शुक्लध्यान का तथा केवल काययोग वाला तृतीय शुक्लध्यान का अधिकारी होता है। इसके अतिरिक्त चौथे शुक्लध्यान का अधिकारी एकमात्र अयोगी होता है। ध्यान का प्रयोजन:-तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने ध्यान के प्रयोजन अथवा महत्व को सूत्र रूप में प्रस्तुत किया है - "आर्त्तरौद्रधर्मशुक्लानि परे मोक्ष हेतु"।12 अर्थात् उपरोक्त चारों ध्यान में से परे अर्थात् बाद के दो ध्यान मोक्ष के लिए हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य तुलसी का मत है कि ध्यान से जीवनचर्या, मान्यताएँ, स्वभाव, रहन-सहन, 74 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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