Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 55
________________ वैयावृत्त्य का मुख्य प्रयोजन है-कर्म निर्जरा। दूसरों की अग्लानभाव से सेवा करने वाला कर्मों के वृन्द के वृन्द खपा देता है। वह महान् कर्म-निर्जरा व आत्यान्तिक पर्यवसान वाला होता है। ज्यों-ज्यों कर्मनिर्जरा होती है, पवित्रता बढ़ती चली जाती है। आत्मशुद्धि के पवित्र उद्देश्य से की जाने वाली सेवा आत्महित साधती है। आत्महित की साधना वही कर सकता है जो परमार्थ की भूमिका पर पहुंच जाता है। इसलिए सेवा में अपने व पराए का भेद गौण होता है, चित्त की समाधि मुख्य होती है।। तत्त्वार्थराजवार्तिक में वैयावृत्त्य के चार प्रयोजन बतलाए गए हैं - 1. समाधि पैदा करना। 2. विचिकित्सा दूर करना। ग्लानि का निवारण करना। 3. प्रवचन वात्सल्य प्रकट करना। 4. सनाथता-निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देना। मुनिचर्या का प्रमुख अङ्ग-वैयावृत्त्य मुनि की साधना का मुख्य सूत्र रहा है—'काले कालं समायरे।' जो कार्य जिस समय करणीय है, उस कार्य को उसी समय किया जाए। सामान्यतया मुनि की चर्या चार प्रहरों में विभक्त थी। मुनि प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे अर्थात् सूत्र का अध्ययन करे। द्वितीय प्रहर में ध्यान अर्थात् अर्थ का अनुचिन्तन करे। तृतीय प्रहर में भिक्षा और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करे।' प्राचीन काल में यह चर्या का एक निश्चित क्रम था। यहां प्रश्न हो सकता है कि इस क्रम में सेवा का स्वतंत्र उल्लेख क्यों नहीं? इसका कारण यही है कि सेवा का कोई निश्चित समय नहीं होता। फिर भी इतना निःसंदेह कहा जा सकता है कि जब भी अपेक्षा होती, सेवा को ही प्राथमिकता दी जाती। उत्तराध्ययन में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। सूर्योदय होते ही मुनि गुरु के उपपात में पहुंचता है। विनयपूर्वक बद्धांजली गुरु से प्रार्थना करता है-भंते! आप जैसा उचित समझें, मुझे स्वाध्याय अथवा वैयावृत्त्य में नियुक्त करें। गुरु शिष्य को वैयावृत्त्य में नियुक्त करते तो वह अग्लान-भाव से वैयावृत्त्य करता और यदि स्वाध्याय में नियुक्त करते तो वह अग्लान-भाव से स्वाध्याय करता। बृहत्कल्प भाष्य में सेवा की प्राथमिकता का सुन्दर दिग्दर्शन है। वहां बताया गया है--कोई भी मुनि चाहे वह ग्राम में स्थित हो या मार्ग में विहरण कर रहा हो, यदि वह ग्लान के बारे में सुन लें तो सेवा को प्राथमिकता दें। 'ग्लान आदि की सेवा करता हुआ मैं महान् कर्म-निर्जरा का लाभ प्राप्त करूंगा'- इस श्रद्धा के साथ तत्काल वह ग्लान के समीप पहुंचे। ग्लान की अथवा ग्लान की परिचर्या में व्याप्त साधुओं की वैयावृत्त्य में नियुक्ति हेतु प्रार्थना करे। भाष्यकार के अभिमत से ऐसा करने वाला तीर्थ की प्रभावना व तीर्थंकरों की आज्ञा की आराधना करता है। 50 । तुलसी प्रज्ञा अंक 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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