Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 66
________________ गीता और उत्तराध्ययन की समानता भी यहाँ द्रष्टव्य है। उत्तराध्ययन में केशी कुमार के प्रश्न का उत्तर मुनि गौतम देते हैं । मुनि के उत्तर देने के बाद केशीकुमार कहते हैं - साहु गोयम। पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो। इसी प्रकार का प्रश्न गीता में अर्जुन ने भी किया था के र्लिङ्गैस्त्रीन् गुणानेतानतीतां भवति प्रभो। किमाचारः कथंचैतांस्त्रीन् गुणानतिवर्तते॥ मनुष्य सत्व, रजस् तथा तमोगुणों से अतीत अर्थात् गुणातीत कब होता है ? गुणातीत का आचरण कैसा होता है। अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा मानापमानयोस्तुल्पस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः। सरिंभपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥' तात्पर्य यह है कि जो मान-अपमान में सम है, जो मित्र और शत्रु में सम है तथा समस्त कार्यों के आरम्भ में अपने कर्तृत्व का भान न रखें, वही गुणातीत है। वह यह समझता है कि क्रिया तो प्रक्रिया में हो रही है। मैं तो उससे पृथक् हूँ। यही गुणातीत की पहचान है। अर्जुन कहता है नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत् प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥' कर्मवाद्-कर्म एक ऐसा तत्त्व है जिसका विवेचन प्रत्येक दर्शन में पाया जाता है। गीता और उत्तराध्ययन में भी इस विषय के ऊपर गम्भीर विचार किया गया है। गीता में कहा गया है नहि कश्चित् क्षणमपिजातुतिष्ठत्यकर्मकृत।' इस संसार में कोई भी प्राणी कर्म किये बिना क्षणभर भी नहीं रह सकता। यह जगत् प्रकृति का विकार है। प्रकर्षेण कृतिः क्रिया यत्र सा प्रकृतिः । जहाँ निरन्तर क्रिया हो रही है वही प्रकृति है। जीव कर्म की यह परम्परा अनादि है। कर्म क्या है? इस बात को परिभाषित करते हुए आचार्य तुलसी लिखते हैं प्राणी की अपनी शुभ और अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट पुद्गल स्कन्ध जो आत्मा के साथ एकीभाव हो जाता है, उसे कर्म कहा जाता है। जैन तत्त्व विद्या, गीता तथा अन्य वैदिक ग्रन्थों में क्रिया मात्र को कर्म कहा गया है। कर्म के अनेक भेद जैनदर्शन में किये गये हैं। वैदिक परम्परा में भी नित्य नैमित्तिक, काम्य, उपासना आदि भेद किये गये हैं, किन्तु सबको शुभ और अशुभ दो भागों में बाँटा जा सकता है। शुभ कर्म का फल शुभ तथा अशुभ कर्म का फल अशुभ होता है। अपने से किये गये कर्म का फलभोग स्वयं ही करना पड़ता है। उत्तराध्ययन में लिखा है तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 - 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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