Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 65
________________ सहिष्णुता आदि सद्गुणों को स्वीकार कर ले। गीता में भी मनुष्य जन्म की दुर्लभता की बात उसी प्रकार कही गई है प्राप्यपुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: सप्ताः । शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥ अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्। एतद् हि दुर्लभतरं लोके जन्म यहीदृशम्।। पुण्यवान् व्यक्ति स्वगादि उत्तम लोकों में निवास कर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान् पुरुषों के घर में अथवा ज्ञानवान् योगियों के घर में जन्म लेता है। ऐसा जन्म लेना दुर्लभ है। आचार्य शंकर ने कहा है --जन्तूनां नर जन्म दुर्लभम्। श्रीमद्भगवत में कहा गया है नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्। मयानुकूलेन नमस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् से आत्महा। मनुष्य का शरीर पुण्यवान् के लिए सुलभ है तो विपरीत आचरण वाले व्यक्ति के लिए दुर्लभ है। यह बहुत अच्छी तरह से बनायी गई नाव है। गुरु ही उस नाव का नाविक है। परमात्मा ही अनुकूल पवन है। ऐसी स्थिति में जो आत्म-कल्याण नहीं करता वह व्यक्ति आत्महन्ता है। इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि मनुष्य के आत्मकल्याण का साधन यह मनुष्ययोनि ही है। यही बात उत्तराध्यययन में केशी कुमार और गौतम मुनि के संवाद में बड़े रोचक ढंग से रूपकालंकार की भाषा में कही गई है। केशी कुमार ने पूछा- इस संसार में सागर क्या है ? नौका क्या है ? नाविक कौन है ? इसके उत्तर में कहा गया - शरीरमाहः नावत्ति जीवो वच्चड़ नाविओ। संसारोऽर्णवो वृत्तो जं तरन्ति महेषिणो।' यह संसार ही अर्णव है, जीव नाविक है और शरीर ही नाव है। यहाँ उपमेय, संसार, जीव तथा शरीर में विशेषाध्यवसाय के लिए उपमान का धर्म क्रमश: अर्णवत्व, नाविकत्व तथा नौकात्व का आरोप किया गया है। इस प्रकार आलंकारिक भाषा में जीवन के स्वरूप का निरूपण अपने में अनुपम है। इतना अन्तर अवश्य है कि वैदिक परम्परा में गुरु को नाविक माना गया है और यहाँ जीव को ही नाविक माना गया है। इस थोड़े से वैषम्य के होने पर भी दोनों का तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार जीव और अजीव को पार करने के लिए नाव आधार बनती है उसी प्रकार यह शरीर भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आधार बनकर संसारार्णव के उत्तरण का साधन बनता है। नौका से पार करने वाले लोग नौका से पार करके नौका को छोड़कर गन्तव्य स्थान पर चले जाते हैं। इसी प्रकार संसार सागर को पार करके जीव इस शरीर को छोड़कर मोक्ष में चले जाते हैं। 60 - तुलसी प्रज्ञा अंक 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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