Book Title: Tulsi Prajna 2003 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 71
________________ अथर्ववेद अथर्ववेद के अनुसार जल अपने स्वरूप से ही पवित्र हैं और अपने सम्पर्क में आने वाली प्रत्येक वस्तु को पवित्र कर देते हैं। यही कारण है कि इन्हें "शतपवित्रा" कहा गया है।' जल स्वयं प्रदूषणरहित हैं और सब प्रकार के प्रदूषणों व पापों को दूर करने में सक्षम हैं-अरिप्रा आपो अप रिप्रमस्मत् देवता रूप जल स्नान, आचमन और प्रोक्षण आदि करने वालों के सम्पूर्ण पापों को स्नान, आचमन और प्रोक्षण आदि से बहा देते हैं "। जलों में भेषज गुण विद्यमान है-अप्सु भेषजम्।। जल व्याधि दूर करने वाली औषधियों में परम चिकित्सा कुशल हैं -भिषजां सुभिषक्तमा। । शुद्ध, दिव्य व पवित्र जलों में औषधगुण प्रचुर मात्रा में होते हैं । अथर्ववेद (6.91.3) का मानना है कि सब औषधियां जल की ही विकार है, इस प्रकार जल ही रोगों का नाश करने वाली औषधि है। जलों में केवल एक रोग नहीं अपितु सब प्रकार के रोगों की औषधियां हैं-अप्सु मे सोमो अब्रबीदन्तर्विश्वानि भेषजा। । वेदों में जलों से हृदय रोगों की शान्ति, नेत्र एवं पाद रोगों की शान्ति, यक्ष्मा रोग, व्रण, आमवात, सड़ावट से बचाव तथा मनोरोगों के निवारण आदि का उल्लेख मिलता है। जल शरीर के लिए ज्वर आदि सब रोगों के निवारक औषधियों को प्रदान करता है, जिससे मनुष्य चिरकाल तक सूर्य के दर्शन करता है. आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम। ज्योक् च सूर्य दृशे॥ जलों में अमृत है-अप्स्वन्तरमृत् । अमृतगुण सम्पन्न होने से जल अपरिमित गुण वाला अमूल्य तत्त्व है। मूच्छित पुरुष पर जल छिड़कने पर उत्क्रान्त प्राणों को शरीर में फिर प्रवेश करते हुए देखा गया है, अत: जल अमृत-मरने से बचाने वाला है- आपस्तस्मादभिरवतां तमभिषिञ्चन्ति नार्तिमर्च्छति सर्वं आयुरेति।। अथर्ववेद (1.4.4) अथर्ववेद के अनुसार पशुओं में स्वास्थ्य व बल जलों के कारण हैं, क्योंकि उनमें अमृत और भेषज गुण है। जल मानव के लिए सुखद है। वह मानव को बल या अन्न में विधृत करता है - महद् और रमणीय ब्रह्म के दर्शन के लिए आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जा दधातन। महे रणाय चक्षसे॥18 अथर्ववेद (1.5.3) अथर्ववेद में उपभोग्य रूप अन्न की प्राप्ति के लिए जलों को पर्याप्त रूप में पाने की कामना की गयी है ताकि वे धान आदि अन्नों को बढ़ाएँ तथा पुत्र और पौत्रों आदि की उत्पत्ति में सहायक हों। 66 - तुलसी प्रज्ञा अंक 119 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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